बेटी की अभिलाषा यही, ना करो संग उसके सौतेला व्यवहार
मिले उसे भी बेटे की तरह भरपूर लाड़ और प्यार
है इच्छा यही, होने पर उसके झूम उठे खुशी से सारा परिवार
मनाया जाये जन्मदिन उसका भी धूमधाम से हर बार
पढ़ाई -लिखाई ,खाने-पीने में कोई भेदभाव नहीं उसे स्वीकार
कानून के बल पर नहीं, स्वाभाविक रूप से चाहती है वो समानता का अधिकार
है इच्छा यही बेटी की, गर करे कोई उसकी इज़्ज़त तार -तार
उसके कपड़ों और सलीके पर ना मिलें उसे ताने हज़ार
ना बैठा दिया जाए घर में छुपाकर, बल्कि दुराचारी हो दंडित व शर्मसार
ना थोपें जायें फैसले उसपर, बल्कि हो फैसले लेने का उसे अधिकार
कर सके अपने सपने सभी ताकि वो साकार
नाम भी रौशन करेगी, करके देखो तो सही उसपर एतबार
करके विदा बेटी को ना करो पराया, छीनकर उससे सारे अधिकार
ज़ुल्म सहकर भी निभाना ससुराल में ,अब वही तेरा घरबार
क्यों भरते हो बेटी के मन में ऐसे फ़िज़ूल विचार
क्यों नहीं कहते उससे, करना विरोध गलत बात का ,साथ है तेरे तेरा परिवार
बुढ़ापे की लाठी बनने को भी है वो सहर्ष तैयार
फर्ज़ पूरे करने से कब करती है वो इन्कार
बेटी वरदान है अभिशाप नहीं, ना करे कोई उसका अब तिरस्कार
इस ज़माने में भी है जिनपर बेटों का भूत सवार
मार देते हैं कोख में ही बेटी को,है उनपर धिक्कार
बेबात की पाबंदियां अब नहीं उसे स्वीकार
उड़ना चाहती है वो तो अब अपने पंख पसार
मौलिक रचना
वन्दना भटनागर
मुज़फ्फरनगर
#1000कविता
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