व्यक्तिवाद एवं उन्मुक्त जीवन जीने की चाह
खोलती है एकल परिवार की राह
अब ज़िम्मेदारी उठाना और मिलकर रहना कौन चाहता है?
मिल जाए जायदाद में से हिस्सा बस हरेक यही चाहता है
सिमट गए जबसे संयुक्त परिवार और बने हैं एकल परिवार
नहीं मिल पाता तबसे बच्चों को अपने हिस्से का पूरा प्यार
नहीं करता अब कोई उनकी मान मनुहार
बहलाते हैं पेरेंट्स अब उन्हें देकर सिर्फ उपहार
सबको लगते हैं बस अपने बीवी- बच्चे प्यारे
मां-बाप को कौन अब अकेलेपन से उबारे
मां-बाप की सेवा अब नर्स ही करती है
बहू तो फोन करके ही अपना कर्त्तव्य पूरा करती है
बेटा, अब बुढ़ापे की लाठी कहां कहलाता है
अब तो गैरों के सहारे बुढ़ापा कट जाता है
त्यौहार भी अब खुशियां कहां ला पाते हैं
सुनहरी यादों की याद दिलाकर बस दंश दे जाते हैं
विडंबना तो देखो, विदेशी, भारतीय संस्कृति अपनाते जा रहे हैं
हम भूल कर उसे, अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारते जा रहे हैं
अरे सुख- दुःख में एक दूसरे के भागीदार बनो तो सही
थोड़ी बहुत बात एक दूसरे की बर्दाश्त करो तो सही
फिर देखो सामंजस्य और आत्मीयता से रहने में कितना मज़ा आता है
साथ हो परिवार तो बाहर वाला कुछ कहने से भी घबराता है
आत्मविश्वास बढ़ता है इतना कि असंभव काम भी संभव हो जाता है
स्वरचित रचना
वन्दना भटनागर
मुज़फ्फरनगर
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