नारी के होते हैं रूप हज़ार
हर रूप में देती है वो जीवन संवार
बेटी बनकर जब वो घर-आंगन में चहकती है
पूरी बगिया उसकी खुशबू से महकती है
भाई के लिए तो बहन कर देती है खुशियां भी अपनी कुर्बान
होती है वो भाई की आन-बान-शान
बनकर पत्नी निभाती है पति के साथ सारी ज़िम्मेदारी
रखती है व्रत उसके लिए, टाल देती है बलायें सारी
बनकर मां ,बच्चे के लिए हर दुःख झेलती है
उसके लिए तो अपनी जान पर भी खेलती है
खून पसीने से सींचकर देती है वो कुल को चिराग
रखती है लाज दोनों कुलों की ,गाती है प्रेम का ही राग
नहीं लगता अब नारी को कोई काम भारी
हर क्षेत्र में खेल रही है वो अपनी पारी
नहीं रह गया अब पर्याय उसका "बेचारी"
सच पूछो तो अब नारी, नर पर है भारी
मौलिक रचना
वन्दना भटनागर
मुज़फ्फरनगर
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