हिंदी भाषा से मेरा जुड़ाव बचपन से ही है दूसरे शब्दों में कहूं तो हिंदी भाषा के बिना मेरा अस्तित्व शून्य है। यही तो वह माध्यम है जिसके द्वारा मैं चिंतन और मनन करती हूं और अपने विचार प्रकट करती हूं। जो मिठास और अपनापन इसमें है वह किसी अन्य भाषा में नहीं। एक ही बात को कहने के लिए हमारे पास अनेकों शब्दों का भंडार है। इसके मुहावरे एवं लोकोक्तियों का कोई सानी नहीं ।
मुझे बचपन से ही अपने घर में पढ़ने का माहौल मिला। एक महीने में जितनी भी प्रतिष्ठित मैगज़ीन प्रकाशित होती थीं वो सब हमारे घर आती थीं। बचपन में हम बच्चों के लिए नंदन, चंदा मामा,चंपक,पराग जैसी किताबें आया करती थीं तो उसे सबसे पहले पढ़ने की होड़ लगी रहती थी। बाकी मैगज़ीन में से हम स्थायी स्तंभ पढ़ा करते थे। श्रीमान श्रीमति, बच्चों के मुख से, यह भी खूब रही, हमारी बेड़ियां आदि। थोड़ी बड़ी हुई तो कहानियां पढ़ने की तरफ रुझान बढ़ गया। मज़े की बात यह थी कि अगर पढ़ने को कोई भी मैगज़ीन नहीं मिलती थी तो अपने पापा की होम्योपैथिक की किताबों में से ही कोई लेकर किसी मेडिसन के बारे में ही पढ़ लेती थी और इस शौक ने मुझे थोड़ा सा होम्योपैथिक का भी ज्ञान करा दिया। मैं चिल्ड्रन लाइब्रेरी में भी पढ़ने जाया करती थी, जहां मेरे साथ के बच्चे कॉमिक पढ़ने को उत्सुक रहते थे वही मुझे हिंदी भाषा के बारे में जानने की उत्सुकता रहती थी और मैं उसके विषय में पढ़ती रहती थी। एक दिन जब मैं लाइब्रेरी पहुंची तो वहां की लाइब्रेरियन मुझसे बोलीं कि आज यहां पर हिंदी दिवस के उपलक्ष में हिंदी निबंध प्रतियोगिता है तुम भी भाग ले लो।मै़ उनसे बोली ना तो मुझे टाॅपिक पता है, ना मैं तैयारी करके आई हूं इसलिए मैं तो वापस जा रही हूं पर जब उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि नहीं तुम्हें हिस्सा लेना ही होगा तो मैंने भी हामी भर ली और लिखने के लिए पैन भी उन्हीं से लिया ।काॅपी पर अपना नाम नहीं केवल कोड नंबर लिखना था ताकि किसी पक्षपात की संभावना ना रहे।ये एक अजीब संयोग था कि उस प्रतियोगिता के निर्णायक मंडल में मेरे पापा भी शामिल थे पर जब उन्हें पता चला कि मैंने भी प्रतियोगिता में हिस्सा लिया है तो उन्होंने अपने को टीम से अलग कर लिया। जब परिणाम घोषित हुआ तो मुझे प्रथम स्थान प्राप्त हुआ। मुझे अपने पापा की आंखों में गर्व की चमक दिखाई दी तो मुझे बहुत सुखद अनुभूति हुई। हिंदी के कारण मैं अपने पापों को गौरव के क्षण दे पाई। घर पर आकर पापा ने बताया कि जज महोदय मुझे एक कॉपी दिखाकर बोले कि भटनागर साहब इस कॉपी को देखिए कैसी सुंदर राइटिंग में बच्चे ने लिखा है और कहीं भी एक भी गलती नहीं है। यहां तक कि बच्चे को ज और ज़ और ग और ग़ मे़ भी अंतर पता है। पापा बोले मैं तेरी राइटिंग पहचान गया था और उस समय दूसरे के मुंह से तारीफ सुनकर मुझे बहुत फक्र महसूस हुआ अपने पापा से ये बात सुनकर मैं भी फूली न समाई। आज मेरे पापा इस दुनिया में नहीं है पर जब भी हिंदी दिवस पर किसी प्रतियोगिता में भाग लेती हूं तो मुझे यह घटना ज़रूर याद आती है ।सच में यह मेरी सुनहरी यादों में से एक है।
मौलिक रचना
वन्दना भटनागर
मुज़फ्फरनगर
Comments
Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓
आपकी रचनाओं में एक अज़ब मिठास होती है, सलाम मैम
आपकी इतनी सुन्दर प्रतिक्रिया के लिए आपका तहेदिल से शुक्रिया 🙏
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