कठपुतली का चलता नहीं अपने ऊपर कोई ज़ोर
दूसरे के हाथ में रहती है क्योंकि उसकी डोर
डोर पकड़ने वाला अपनी मनमर्ज़ी चलाता है
इशारों पर अपने नचाना उसे बहुत रास आता है
नारी को भी पहले कठपुतली की तरह ही नचाया जाता था
बचपन से ही उसे मन मारना सिखाया जाता था
कभी करती थी गर हिम्मत करके वो गलत बात का विरोध
किया जाता था प्रताड़ित,दबा दी जाती थीआवाज़, दिखाकर क्रोध
धीरे-धीरे हुई वो शिक्षित ,जागरूक और जान पायी अपने अधिकार
संभालती है समान रूप से अब चाहे आॅफिस हो या घरबार
अब नाचती नहीं कठपुतली की तरह बल्कि नचाना जानती है
करती है अपने मन की,कहा दिल का मानती है
मौलिक रचना
वन्दना भटनागर
मुज़फ्फरनगर
#1000कविता
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