सदा से रिश्तों की एहमियत समझती आई
दूसरों की फिक्र में हमेशा घुलती आयी
उधड़ता था जब कोई रिश्ता करती थी मज़बूत सिलाई
पिये घूंट कड़वे ,चुप रहने में ही समझी भलाई
ईर्ष्या, द्वेष और दखलांदाज़ी से कोसों दूर थी भाई
हैं शुभचिंतक बहुत मेरे, यह सोच फिरती थी इतराई
जब खुली पोल उनकी तो मैं संभल नहीं पाई
ऐसा कहकर दास्तां अपनी, सखी ने मुझे सुनाई
मैं बोली उससे,नये ज़माने की यही है रीति
करते हैं अधिकतर दिखावा,होती नहीं किसी से प्रीति
निभाते हैं जो दिल से रिश्ते,रहते हैं वो ही परेशान
अपने विवेक से करो दिखावटी लोगों की पहचान
आईना दिखाकर उन्हें, बचा लो उनसे अपनी जान
वरना ताउम्र उठाते रहोगे यूं ही नुकसान
रहो मस्त और व्यस्त अपने में ये बात भी उसे समझाई
जंच गई बात उसको, फिर वो खिलखिलाती नज़र आई
मौलिक रचना
वन्दना भटनागर
मुज़फ्फरनगर
#1000कविता
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