याद आता है मुझको अपना गांव
वो धूप में खेलना, दौड़ना नंगे पांव।
थक कर चूर होने पर होता था एक ही ठांव
भाती थी बस फिर बरगद की शीतल छांव
बरगद की छांव तले ही लगती थी चौपाल
बैठकर वहां पता चल जाता था सबका हाल
दु:ख सुख में गांव वाले देते थे साथ दिखाई
अपनेपन की कमी कभी नज़र ही ना आयी
शहर में मंज़र इसके उलट दिया दिखाई
अपनेपन की मिठास कहीं भी नज़र ना आई
दावत खाने का जो मज़ा गांव में आया
वो शहर के फाइव स्टार होटल में भी ना आया
तीज त्यौहार का लुत्फ भी गांव में ही उठाया
शहर में 'रस्म अदायगी' तक ही त्यौहार को सीमित पाया
जाता नहीं कोई भी शहर को चाव से
रोज़गार की कमी, कर देती है दूर गांव से
बुरे वक्त में फिर भी गांव अपना ही याद आता है
छोड़छाड़ सबकुछ, मानव गांव की ओर खिंचा चला आता है
मौलिक रचना
वन्दना भटनागर
मुज़फ्फरनगर
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