सिनेमा जगत में अबे जो हालात देखबे और सुनबे का मिल रये है इनसे सिनेमा जगत के संगे समाज पे भी उल्टो और नकारात्मक प्रभाव पड़ो है। हम जिन नायक नायिकाओं खा अपनो आदर्श मानत आये बे ही आज कई संगीन आरोपन में लिप्त पाये जा रये है।
पर जो फ़िल्म जगत हमेशा से ऐसो नाइ हतो। इतिहास गवाह है कि पहले जो फिल्में बनत आई बे आदर्श फिल्में होय करत ती। हम पूरे परिवार संगे फिल्में देख सकत ते। पेला तो जब कोनऊ पिच्चर आये करत ती सो घर तो का पुरो गाँव, मोहल्ला संगे बैठ के देखें करत तो। लेकन अब मोहल्ला तो का हम अपने परिवार के संगे भी पिच्चर नाइ देख सकत है।
समय के साथ फ़िल्मन को भी स्वरूप बदलों है। आज की कोल फ़िल्मन ने समाज में जागरूकता बढ़ाबे में मदद करी है। भारतीय सिनेमा अब वास्तविक घटनाओं खा दिखान लगो है। जैसे - "पैडमैन", "टॉयलेट" जिने समाज की समस्याओं खा दिखाके उको समाधान भी बताओ है।
इके संगे संगे सिनेमा भारतीय संस्कृति और परंपरा खा भी सिनेमा में दिखाओ जाने लगो है। पद्मावत, झाँसी की रानी इनई में से एक उदारहण है।
इके बावजूद भी सिनेमा लोगन पे बुरो असर डालता है। आज सिनेमा में अश्लीनता को बढ़तो चलन हमाई पीढ़ी पे बुरौ असर डालत है। जो सिनेमा लोगन खा सपनन में रेबो सिखाउत है हमनें अक्सर देखो है के लोग सिनेमा देखके भटक जात है। बे हीरो हिरोइन घाई कपड़े पहनबे की कोशिश करत है उनके घाई फैशन भी करबो चाहत है उनके घाई मंहगे कपड़े पहनबो चाहत है, उनके घाई ऊँची जिंदगी जिबो चाहत है लेकन वास्तव में जो सम्भव नाइ हो सकत है इन ऊंची जिंदगी जिबे की चाहत और ललक में बे कई बेर गलत रास्ते पर चले जात है।
चीज़ कोनऊ भी होय उमें अच्छओ और बुराओ दोंनउ ही बाते होत है। एइ से पूरी तरह सिनेमा खा दोषी नाइ ठहराओ जा सकत है। फ़िल्मन को असर समाज पे कैसो पड़े उ समाज की मानसिकता पे निर्भर होत है। फ़िल्मन में भी अच्छे और बुराई दोनउ बाते बताई जात है। इसे दर्शक को भी आत्ममंथन करबे की जरूरत है कि बे सिनेमा के कौन से पहलु को अपनाउत है।
और जा बात हमेशा याद रखबो चाइये की सिनेमा को मेन मकसद लोगन को मनोरंजन करबो होत है और उमें काम करबे बाले नायक नायिकाएं केबल कलाकार है उ काम उनको पैशा है सो नायक नायिकाओं खा अपनो आदर्श बनाबे वालों कोई भी कारण नाइ होत है। हमाये आदर्श और हमाये प्रेणनास्त्रोत केबल हमाये माँ बाप ही हो सकत है इसे केबल उनई के आदर्शन खा अपनाये न के सिनेमा जगत की चकाचौंध खा।
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