महामारी के ईश्वर

A poem on doctors

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मिलीतृष्णा
मिलीतृष्णा 03 Jul, 2022 | 1 min read
Doctors

मानव पर विपदा भारी थी, 

बड़ी ज़िद्दी वह माहामारी थी, 

हौसले सभी थे टूट रहे, 

बेवक्त थे अपने छूट रहे, 

त्राहिमाम था मचा हुआ, 

चप्पा चप्पा उससे घिरा हुआ। 

पिंजड़ों में बंद ज़माना था, 

लाखों सिसकियों का फसाना था,

मानव का ऐसा पतन, 

मानव की ही ज़िम्मेदारी थी, 

अफ़सोस, थी कोई ख़बर नहीं,

कब, किसकी अगली बारी थी, 

स्वार्थ भूलाकर उस वक्त भी, 

जो बने हमारे रक्षक थे, 

मेरा उनको शत् शत् नमन, 

मेरा उनको नत मस्तक है।

बिन थके रुके, वो अडिग खड़े, 

लिए संजीवनी अपने प्रयासों में, 

दिखती थी, कर्तव्य निभाने की, 

आशाएं उनकी आंखों में। 

काल के विरुद्ध जाके, 

जो सेवा में जग की तत्पर थे,

वो हर जीवन के रखवाले, 

वो जैसे कोई ईश्वर थे!


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