प्यार और इश्क़ का बखान लिए बैठा हूँ ।
ज़िन्दगी को रोज़ एक इम्तेहान दिये बैठा हूँ ।
मेरे शहर के लोग मेरे दीदार के तालिब हैं ।
में अंजान शहर में नई पहचान लिए बैठा हूँ ।
गिरते जा रहे हैं कुछ अपने ही मेरी नज़र से में उनके सामने अंजान बना बैठा हूँ ।
वो जहाँ तक पहुँचना चाहते ,में छोड़े हुए वो मुकाम बैठा हूँ ।
अपने दिल में बुजुर्गों के अहकाम लिये बैठा हूँ ।
अपनो की ख्वाहिश पूरी करने में ख़ुद से शिकायतें तमाम लिये बैठा हूँ ।
मेरी क़ामयाबी उनके लब की हँसी है , उनसे बस यही एक ईनाम लिए बैठा हूँ ।
कल फुर्सत से गुज़र सके उनके साथ इसलिये आज बहुत से काम लिये बैठा हूँ ।
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