संस्कार की कीमत

एक कहानी माँ के आत्मविश्वास की |

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Surabhi sharma
Surabhi sharma 04 Jan, 2022 | 1 min read

खुद के लिए आवाज नहीं उठा सकी थी रिया, पर आज उसने अपने बेटी के लिए आवाज उठा दी थी और पूरे घर की खिलाफ़त कर उसे कॉलेज के होने वाली नृत्य प्रतियोगिता में भाग लेने की अनुमति दी थी, और आज वार्षिकोत्सव के दिन अकेले ही अपनी बेटी के कॉलेज आ भी गई उसके उत्साहित करने के लिए |


सुनहरे लहंगे में स्टेज पर परिधि को थिरकते देख आँखें खुशी से भीग उठी और दर्शकों की भीड़ में बैठे-बैठे मन अपने आप अतीत के पन्ने पलटने लगा | बाबूजी वो घर के पास ही डांस क्लास खुला है मैं भी सीखना चाहती हूँ, आँखें तरेरते हुए बाबूजी का जवाब था अच्छे और संस्कारी घर की लड़कियां नाच-गाने में मन नहीं लगाती पढ़ाई-लिखाई में ध्यान लगा |


रूआंसी हो माँ की तरफ नजर उठा के देखा तो वहाँ उनकी आँखों में बेबसी के सिवा कुछ ना दिखा 7 वर्ष का मासूम दिल अच्छे और संस्कारी घर की लड़की होने के बोझ तले दब गया, और पढ़ाई लिखाई में जुट गयी वो अच्छे घर की लड़की, कुछ सालों बाद जब अच्छे घर की लड़की ने बी कॉम की डिग्री ले ली तो मन में आत्मनिर्भर और अपनी पहचान बनाने की ललक जागी पर वहाँ भी उसके अच्छे घर की लड़की होना उसका शत्रु बन उसके रास्ते में खड़ा हो गया, दो टका जवाब दे दिया गया था उसे पढ़ाया लिखाया इसलिए है कि शादी अच्छी हो सके और शादी में ज्यादा परेशानी न हो, बेटी की कमाई खाएं इतने बुरे दिन नहीं आ गए हैं, हमारे वो संस्कार नहीं हैं और अच्छे घर की लड़की मन मसोस कर रह गई और कुछ दिन बाद डोली में बैठ विदा हो ससुराल आ गयी जितने संस्कार उसे सिखाए गए थे वो यहाँ उसे आदर्श बहू साबित करने के लिए काफी न थे हर रोज फिर एक नया सबक सिखाया जाने लगा फिर गोद में जब बिटिया आयी तो खुशियाँ आई उस अच्छे और संस्कारी घर की लड़की के सूने जीवन में |


13 वर्ष कब बीत गए पता ही न चला और कुछ दिन पहले ही जब उसकी बिटिया ने स्कूल के डांस कॉम्पिटिशन में भाग लेने की अनुमति माँगी तो फिर अच्छे और संस्कारी घर की लड़की होना उसके पाँव को भी बेड़ियों में जकडने के लिए विवश होने लगा पर बस और नहीं मेरी बेटी अच्छे और संस्कारी घर की लड़की होने का बोझ अपने कंधे पर नहीं उठाएगी वो खुद आत्मनिर्भर बनेगी वो संस्कारी बनेगी पर तानाशाही नहीं सहेगी अच्छे और संस्कारी परिवार की लड़की होने के कारण अपनी जायज खुशियों का गला नहीं घोटेगी और आज मैंने भी अपने संस्कारी होने का चोला उतार फेंका है जिसके बोझ तले बेबसी में अपनी हर इच्छा को दफन करती आई पर मेरी बेटी अपनी खुशियां अपनी प्रतिभा अपनी क्षमता को संस्कार के नाम पर दफन नहीं करेगी मैं हर कदम अपनी बेटी को एक नया आसमान नापने का हौंसला दूँगी | 


इस नृत्य प्रतियोगिता का प्रथम पुरस्कार परिधि सिंह को मिलता है |


घोषणा के साथ ही हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा परिधि ने मेरे पाँव छूये तो बरसती आँखों से गले लगा लिया | माँ अब घर चले, नहीं परिधि पहले डांस क्लास चल वहां तेरा एडमिशन कराना है पर माँ - दादाजी, तू उनकी चिंता मत कर | मैं हूँ न तेरे सपनों को पंख देने के लिए तुझे उड़ान भरने की आजादी दिलाने के लिए तू उड़ेगी बेटा और आसमान को अपनी मुट्ठी में बंद करेगी |परिधि ने भींगी आँखों से माँ का हाथ थाम लिया, थैंक्स माँ मेरे रास्ते के कांटे चुन मेरी मंजिल आसान बनाने के लिए आपकी उम्मीद पे मैं जरूर खरी उतरूगी | माँ के आँचल तले बेटी का एक ख्वाब सुरक्षित हो गया था |



 दोस्तों ये तो एक काल्पनिक कहानी है जो यथार्थ के धरातल पर बुनी गयी है | लिखने की प्रेरणा मुझे मेरे हॉबी क्लास की एक कैंडिडेट के जीवन से मिली है जो झूठ बोलकर ब्यूटीशन कोर्स के नाम पर अपने नृत्य के शौक को पूरा कर रही है, झूठ बोलना आदर्श संस्कार के खिलाफ है पर उसे झूठ बोलने की जरूरत क्यों पड़ी क्योंकि संस्कार को संस्कार की जगह तानाशाह बना दिया गया, अगल बगल झांकने पर कई उदहारण ऐसे मिल जाएंगे और मध्यमवर्ग शहर में तो ये समस्या हर दूसरे घर में आम तो क्या आज भी हम संस्कार के नाम पर लड़कियों या अपनी बेटियों की इच्छा का गला यूँ ही घोट देंगे, या अपनी सोच बदल अपनी बेटियों को आसमान में उड़ने देंगे, उनके देखे हुए ख्वाबों को पूरे होने देंगे? 





          धन्यवाद 


            सुरभि शर्मा 


   


 


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