कमरे में आज फिर उसने काँच का गिलास उठा कर फेंक दिया | पत्नी चुपचाप आकर बिखरे टुकड़ों को झाड़ू से समेट कर चली गयी | वो आश्चर्य में था कि अब ये पहले की तरह मुझसे हँसती - बोलती या झगड़ा क्यों नहीं करती?
वो उसके पास गया और बोला सुनो, तुम्हारे खामोश रहने से घर अच्छा नहीं लगता पहले की तरह हँसा - बोला करो |
पत्नी ने अपना काम निपटाते हुए कहा, पहले तुम्हें मेरा हँसना - बोलना, झगड़ना अच्छा नहीं लगता था तो मैंने धीरे - धीरे तुम्हारे हिसाब से अब खुद को ढाल लिया |पर अब फिर से खुद को नहीं बदल पाऊँगी क्योंकि उस समय मैं स्त्री थी तो मुझमें जीवन था |
"और अब साँसे तो हैं पर ठीक वैसे ही जैसे कठपुतलियों में धागे होते हैं उसे अपने हिसाब से चलाने के लिए, पर उनमें जीवन नहीं होता कि वो खुद को बदल सकें |"
कापीराइट
सुरभि शर्मा
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