शीर्षक - कोलाहल
लेखिका - सुरभि शर्मा 'जिंदगी'
कई एकड़ में फैला हुआ आधुनिक सुख - सुविधाओं के साथ एक पॉश अपार्टमेंट तैयार हो चुका था | सभ्य लोग का आशियाना, एक वीरान जंगल क्षेत्र अब भीड़ - भाड़ वाले रिहायशी इलाके में परिवर्तित हो चला था |अपार्टमेंट में बने स्विमिंग पूल, हर फ्लैट में लगे एयर कन्डीशनर प्रकृति की सत्ता को धत्ता देते हुए गर्मी से सारी मानव जाति को कृत्रिम राहत दे रहे थे |
थ्री बी एच के के इस आलीशान फ्लैट में कुछ पँखों के फड़फड़ाने की आवाज आ रही थी |फ्लैट का मालिक ग्लास में भरे हुए शीतल पेय पदार्थ से खुद को क्षणिक सुकून पहुंचाते हुए बरामदे तक आया, बालकनी की पारदर्शी स्लाइडिइंग से दिखा कबूतर का एक जोड़ा जो रेलिंग पे अपने पंजों द्वारा खुद को टिकाने की कोशिश करता हुआ इधर - उधर खोजी नजरों से कुछ तलाश रहा था शायद, मालिक ने दो बार ताली बजा कर उस जोड़े को उड़ाने की कोशिश की पर कबूतर को शयद उसकी करतल-ध्वनि में कोई रुचि न थी इसलिए वो अपनी जगह अपनी प्रेयसी के साथ दृढ़ता से टिका रहा |
वास्तु के अनुसार उस बालकनी में घर में धन - सम्पत्ति को आकर्षित करने वाले मनी प्लांट, लक्ष्मीस्वरूपा तुलसी, सदाबहार, कुछ गुलाब - मोगरे के पौधे शोभायमान थे, शायद हम फ्लैट में रहने वाले अपनी जरूरत और शान शौकत के लिए प्रकृति का पूर्णतया चीरहरण करने के बाद अपने घर में कुछ पौधे को जगह दे देते हैं कि प्रकृति मानव को पूर्णतया ही स्वार्थी और अहसानफरामोश न समझ ले| जैसे कोई शातिर बच्चा अपनी मीठी मीठी बातों से बहला कर अपने माँ की सम्पति अपने नाम कर लेता है और फिर सामाजिक प्रतिष्ठा के भय के कारण माँ को उसके ही घर में थोड़ी सी जगह दे देता है |बस हम भी वैसे ही प्रकृति की रौद्र शक्ति को कुछ यूँ ही शांत रख लेना चाहते हैं |.
बातें करते करते विषय भटक रहा है वापस आते हैं कबूतर के जोड़े और मालिक की करतल ध्वनि पर, तो कबूतरों ने करतल ध्वनि को अनसुना कर उड़ने से इंकार कर दिया |मालिक की भाव भंगिमा बदल ही रही थी कि सहसा उसे कुछ याद आया वो उल्टे पाँव अपनी घर की रसोई में वापस आया और प्लास्टिक के दो छोटे कटोरे में पानी और दाना लाकर बालकनी में रखते हुए उस जोड़े की तरफ ताका, तभी उसे अपना गांव याद आ गया गांव के साथ साथ उसे आम, शहतूत, अमरूद, सागौन के पेड़ याद आये साथ ही हरिमन मिट्ठू और जिया गाय याद आयी, उसे ये भी धीरे - धीरे याद आने लगा की उसे पक्षियों की भाषा की भी थोड़ी - थोड़ी समझ है|
उसने उस जोड़े के गुंटूर गुं पर अपने कान केंद्रित किए |
"गुंटूर गु- परेशान मत हो कुछ न कुछ इंतजाम हो जाएगा |
गुंटूर गु - प्रसव वेदना अब सही नहीं जा रही कहाँ दूँ मैं अपने इस जिगर के टुकड़े को जन्म इन आदमियों ने तो हर जगह अपना क़ब्ज़ा कर लिया है |जंगल पहाड़, नदी हर जगह से हम पशु - पक्षियों को निराश्रित करता जा रहा है |
गुंटूर गु - अरे, तो क्या हुआ पगली! हमारे लिए एक कटोरा दाना और एक सकोरा पानी रखने का प्रचार प्रसार कर हमारे मन के छालो पर औषधि का लेप लगाने का काम भी तो ये इंसान ही कर रहे हैं न |"
मालिक उनकी बाते सुन तेजी से अपने कमरे में आकर एक कॉल कर ऑर्डर करने लगा जितनी जल्दी हो आकर कबूतर वाली जाली फिक्स कर दो, अगर यहाँ इन्होंने घोंसला बना लिया तो मेरे इस खूबसूरत फ्लैट में बहुत गन्दगी हो जाएगी |
कबूतर का जोड़ा उसके रखे हुए दाने - पानी को अहसान के साथ चुग रहे थे |
"अच्छा है पँछी इंसानी बोली नहीं जानते |"
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