भावनाओं का अकाल पड़ा है
सूख रहा है मन
सूख रही हैं कवितायें,
हृदय - मृग व्यथित है
कस्तूरी - सुगंधि की खोज में,
सर्वेक्षण करते नेत्रों ने कुलांचे
भरते हुए विराम लिया है
हिंसा, द्वेष, ईर्ष्या, स्वार्थ, काम,
क्रोध, धन, यश,
कुछ मत्सर चपल संवेगो के मध्य
पूछ रहा है चित्त क्या यही है
वो सुरभित क्यारी?
मन की आकुलता
तीव्र से तीव्रतर होती जा रही है|
हाँ - हाँ यहीं है शायद
पर कहाँ?
व्याकुलता फिर शांत क्यों नहीं?
प्राप्त भी अप्राप्य सा क्यों?
ओह! ये भ्रमित मादकता है
वो दिव्य सुगन्ध नहीं!
यहाँ पूर्णविराम की संभावना नहीं |
आगे बढ़ो -
रे मन! ठहरो जरा
कि देखो वहां से उठ रही
है कोई सुगन्ध
कि नासिका विवश है वहाँ के
आस्वादन के लिए
ओह! ये मानवीय सम्वेगों की वाटिका है
त्याग, करुणा, सहयोग,सत्कार, परोपकार, ममता और
अप्रतिम सौंदर्य लिए प्रेम - पुष्प खिले हुए हैं
सुवासित वाटिका उर मोह रही है
पग स्वयम ठहर रहे यहाँ
या इस सौंदर्य ने विवश कर दिया उन्हें
यहाँ विश्राम के लिए,
मस्तिष्क में प्रश्न कौंध रहा कि
क्या ये पूर्णविराम है सौरभ की खोज में
मन शांत तो है पर स्थिरता गौण हैं यहाँ
शिथिलता का वर्चस्व ज्यादा प्रतीत
हो रहा ऊर्जा पर
पाने - खोने के भय से ग्रसित
अर्थात् पूर्णता यहाँ भी नहीं
फिर भटकना ही नियति है क्या?
भटकते रहे तो थकान का
बोझ न सह पाने की
संभावना में ये
हरियल वाटिका
मरूस्थल में रूपांतरित
हो जाए |
आगे बढ़ो -
अब मन को थोड़ा एकांत चाहिए
उद्विग्न से बैठे हुए मन के नेत्र
कुशल धावक की भांति फिर
दौड़ रहे हैं कि इस बियाबान में
भी ये सुवास
अहा! कितनी मीठी सी
पर प्रत्यक्ष क्यों नहीं होती
स्पन्दन की गति थोड़ी तीव्र हुई है
वो कह रही है कि
अपना चित्त अपने तीसरे नेत्र पर
एकाग्र करो
मन अब उसे सुनना चाहता है
शांति, सौम्यता, स्थिरता से
कि श्वास कह रही है
मैं ही वो दिव्य सुरभि हूँ,
मैं ही वो ऊर्जा हूँ,
मात्रा में तुम्हें
गिनती से मिला हुई हूँ
प्रणवाक्षर में लीन हो
मेरा सदुपयोग करो |
कि फिर मानवता कभी नहीं मरेगी
ना भावनाओ का अकाल होगा
ना सूखेगा मन, ना सूखेगी कविताएं
कि कविताएं युग - युगांतर तक अनवरत बहेंगी
कि कविताएं सार्वभौमिक ऊर्जा का स्रोत हैं
वो कभी सूख ही नहीं सकती |
सुरभि शर्मा
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