कठपुतलियां ही तो थे हम तुम, वक्त के हाथो की और हम समझ नहीं पाये, नहीं समझ पाये कि गलतफहमियों की दीवारें बहुत मजबूत होती हैं, अगर उन पर संवादहीनता की सीमेंट लगा दी जाए,
जब वक्त ने एक लकीर खींची थी हमारे बीच, ठीक उसी वक्त हमें आवाज देनी थी एक दूसरे को, पुकारना था पूरे मन से, पूरे जोर से, और शुरू करनी थी बातचीत, फिर वो दीवार कभी खडी ही नहीं हो पाती और हम यूं अलग अलग रहने की त्रासदी नहीं झेलते...!
लेकिन कईं चीजें बहुत देर से समझ आती हैं , हां.. बहुत देर मे , तब तक उम्र का एक बड़ा हिस्सा गुजर जाता है, हमारा भी गुजर गया, अब जाने कितने दिन शेष हैं, जिंदगी की उल्टी गिनती कब शुरू हो जाये, रमाकांत जी आज अपनी डायरी में ये सब लिख रहे थे ,उनका मन विवशता से बैठा जा रहा था, अब हो भी क्या सकता है, इस बुढ़ापे में , पता नहीं सुभद्रा ने मुझे माफ भी किया या नहीं , क्या उसको अपनी भी गलती अभी तक भी रियलाइज हुई या नहीं.."
एक ठंडी आह के सिवाय कुछ नहीं था उनके पास, भोला को आवाज दी एक कप चाय बनाकर ले आओ जैसी तुम्हारी मेमसाहब बनाती थी ,नौकर बखूबी जानता है, वो चाय बनाना, लेकिन मेमसाहब के हाथ का स्वाद तो नहीं ला सकता ना, फिर भी हमेशा बनाकर देता है और रमाकांत जी केवल दो घूंट पीकर उसे छोड़ देते हैं, वो समझ जाता है ,अच्छी नहीं लगी..।
लेकिन किसी ने ये भी तो कहा है ,"जब जागो तभी सवेरा " अगर देर हो गयी है और फिर भी बैठकर यही सोचा जाये कि अब क्या हो सकता है तो देर और बढेगी ही जिंदगी आखिर कितनी मोहलत देगी,
ये सब आज सुभद्रा जी अपनी डायरी में लिख रही थी, तभी उनकी बहू चाय लेकर हाजिर हो गयी,
"क्या लिख रही हो मम्मी ,"
"कुछ नहीं बेटा... बस ऐसे ही,
"बस ऐसे ही तो आप कुछ लिखती नहीं हो , बनाओ मत आप मुझे, "
रश्मि उनकी बहू , उनसे बेटे से भी ज्यादा बातें करती थी, लगता ही नहीं था दोनों सास बहू हैं, उसे ये पता था कि सालो पहले, उसके सास ससुर के बीच किसी तीसरे के आ जाने से कुछ गलतफहमियां हो गयी थी और सासू मां ने अपने बेटे के साथ उनका घर छोड दिया था, फिर पीछे मुड़ कर नहीं देखा, ससुर भी कभी बुलाने, मिलने या ढूंढने नहीं आये, तब से एक नौकर के सहारे अकेले ही रहते हैं।
दस साल हो गये बीच में जो गलतफ़हमी और अहम की दीवारें थी , वक्त के साथ खोखली तो हो गयी हैं, बस एक चोट की देर है भरभरा के गिर जायेगी लेकिन.. !
"अरे क्या सोचनें लगी.. रश्मि,
"कुछ नहीं मम्मी "
"एक बात कहूं"
"कहो..! "
"आप जानते हो पापा अभी भी उसी घर में हैं, अकेले हैं, इतना लम्बा अकेलापन झेल लिया उन्होनें तो उनके हिस्से की सजा भी हो ही गयी, तो क्यूं ना आप ही पहल कर लो.."
रश्मि जल्दी जल्दी बोल गयी,
"लेकिन अब बुढ़ापे में क्या करना, थोडी बहुत उम्र बची है वो भी ऐसे ही पूरी हो जायेगी, मैं तुम लोगो के साथ बहुत खुश हूं "
"सूकून मिलेगा मां,
एक बोझ जो हमेशा मन पर धरा रहता है, वो हट जायेगा, और आप से बड़ा बोझ उनके मन पर रखा होगा, पता नहीं कितना अपराधबोध जमा कर रखा हो उन्होनें ,मन में "
लेकिन मैं... ऐसे कैसे..चली जाऊं मिलनें, इतने लम्बे अंतराल के बाद ?
"अरे मां, आप चिंता क्यों करती हो, मैं हूं ना, मैं चलती हूं आपकी गाड़ी ड्राइव करके ले जाऊंगी, दरवाजे की घंटी भी मैं ही बजाऊंगी और आपको पता है दरवाजा भोला काका ही खोलेंगें... और... "
और रहने दे मेरी मां ...चल, आज तुम्हारे मन की ही करते हैं ।
ठीक एक घंटे बाद.. सुभद्रा जी अपने पुराने घर के सामनें खड़ी थी, देख रही थी जो घर हरियाली से हराभरा रहता था, आज वहां वीरानी छायी है, एक भी पेड़ पौधा नहीं बचा, इतनी देर में रश्मि ने घंटी बजा दी, भीतर से भोला आंख मलता हुआ आया,
कौन?
और रश्मि को पहचानने की कोशिश करने लगा, तभी उसकी नज़र सुभद्रा जी पर पडी और वो उल्टे पांव दौड गया, साहब... साहब, मेमसाहब. .!
सारे शब्द उसके मुंह में टूट फूट गये और रमाकांत जी अपनी तेज होती धड़कनो के साथ, बाहर दरवाजे पर आ गये, दोनों एक दूसरे को देखकर जड़ हो गये जैसे, रश्मि ने चुप्पी तोडी,
नमस्ते पापा जी , घर के अंदर नहीं बुलाओगे हमें,
हां बेटा, आओ... आओ, अपनी मां को भी लाओ,
"आप ही बुला लीजिए ना, मां को,"
"सुभद्रा... अपने घर के बाहर क्यों खड़ी हो, अंदर आओ ना..! "
इससे आगे के सारे शब्द उनके गले में ही रूंध गये और रश्मि , सुभद्रा जी का हाथ पकडकर घर में प्रवेश कर गयी.. !
दोनों के चश्मों के भीतर भीगती आंखे वो सहज ही देख पा रही थी, लेकिन फिर भी अनजान होकर बोली, काका भूख लगी है, कुछ खिलाओगे नहीं,
हां बेटा, अभी. ..अभी लाया,
तभी सुभद्रा जी उठकर रसोई में आ गयी, भोला चाय मैं बनाती हूं, तुम और कुछ काम कर लो,
जी, जी मेमसाहब.. छोटी बहू पहली बार घर आई है, मैं हलवा बनाता हूँ,।
आज रमाकांत जी ने पूरी चाय पी, कप में एक घूंट भी नहीं बचा.. ये सूकून भोला ने महसूस किया,
इतने सालो बाद भी सुभद्रा जी अपने घर का कोना कोना देख रही थी, ये सूकून रश्मि ने महसूस किया उनके चेहरे पर,
रश्मि और रमाकांत जी ऐसे बाते कर रहे थे जैसे बरसो से एक दूसरे को जानते हों , ये सूकून महसूस किया सुभद्रा जी ने,
आज भोला भाग भाग कर काम कर रहा था, ये सूकून महसूस किया रमाकांत जी ने,
घर में ऐसी रौनक हो गयी थी अचानक जैसे मुर्दे में प्राण फूंक दिये हों किसी ने, ये सुकून महसूस किया उस घर की छत ने..!!
सच ही तो है, हम सब, हां... हम तुम वक्त के हाथों की कठपुतलियां हैं ,कल जो बिगड़ गया था, वो आज सुधर गया, ये सूकून महसूस किया होगा, वक्त ने भी. .।।
©®sonnu Lamba
Comments
Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓
Nice story
थैंक्यू
Please Login or Create a free account to comment.