ये सब यहां क्या हो रहा है, रमेश..!
बुलडोजर और इतने मजदूर,
यार मैं तो बहुत दिनों बाद आया यहां, पहले अक्सर इस जंगल में आकर खो जाया करते थे, डर भी लगता था, लेकिन जो मजा यहां पगडंडियों की भूल भूलैया में आता था, दोस्तों के साथ वो ओर कहीं नहीं... आज भी तुम नहीं जिद करते तो आ ही नहीं पाता मैं यहां.. लेकिन लगता है ये जंगल काट रहे हैं, कोई सरकारी प्रोजेक्ट है क्या..?
हूं... इसलिए तो तुझे यहां लाया हूं, कि आखिरी बार देख लेते हैं, फिर तो ये जंगल रहेगा ही नहीं, आज ही अखबार में पढा है, सरकार यहां आक्सीजन सिलेण्डर बनानें का कारखाना बनाने जा रही है,
"लेकिन क्यों..? इतना हरा भरा जंगल काटकर.. "
अरे तुमनें देखा नहीं ...अभी पिछले दिनों पेनडेमिक जब जोरो पर था, कितनी कमीं हो गयी थी आक्सीजन की, किस तरह 70 -70 हजार में एक एक सिलेण्डर बिका..!
वो तो कालाबजारी थी, मनुष्य की हवस का नतीजा.. । लेकिन ये कौन सा तुक है कि एक हरा भरा जंगल काटो और फैक्टरी लगा दो.!
देखा जाये तो जो सब कुछ आज जो सामनें आ रहा है, वो मनुष्य की हवस का ही नतीजा है और फिर
सरकारी जमीन है, कुछ भी कर सकती हैं सरकार , जनता तो सरकार को ही कोसती है ना, जब किसी सुविधा की कमी होती है..।
कैसी बात कर रहा है तू यार. ..?
क्या तू जानता नहीं कि ये जंगल फ्री में ही कितनी ज्यादा आक्सीजन दे रहा है, धरती को, और इको- सिस्टम में इसका महत्व अलग, कितने पक्षी और जानवर यहां रहते हैं ,ये नुकसान बड़ा नहीं है, इस प्रोजेक्ट के सामने. .।
हां, जानता हूँ सब जानता हूँ , लेकिन सबसे बडी बात तो ये कि हम अनमोल चीजों को फ्री का समझते हैं, इसी मानसिकता नें पेडो़ को उपेक्षा का पात्र बना दिया है,काटनें से पहले सोचते ही नहीं,
और सोचा तो सरकार ने भी होगा ये , क्या पता..? उनके पास कोई और जमीन ना हो.. "
"और हम कर भी क्या सकते हैं "
क्या नहीं कर सकते..?
चल अभी, हाइकोर्ट में एक याचिका डालकर पहले इस जंगल को कटने से बचाते हैं, इतने बडे़ बड़े पेड सौ बरस में भी तैयार नहीं होते काटने में तो इन्हें एक दिन ही लगेगा, ।
चल फिर.. .लडाई लम्बी होगी, हमको अन्य लोगो को भी जागरूक करना होगा,।
कुछ फर्क नहीं पड़ता, लडाई कितनी भी लम्बी हो, मैं नहीं चाहता कि कुछ सालों बाद हमारे बच्चे, कमर पर आक्सीजन सिलेण्डर लादे घूमें, अभी देखो कितने सालों से पानी की बोटल तो लादते ही आ रहे हैं और पिछले साल से मास्क भी, क्या ये आजादी है दी हमने उन्हें..?
खुद को बचपन याद करो, हवा, पानी, सब भरपूर, स्वच्छ.. ..और अब. .!
हां, इसलिए आज मैं तुझे यहां लाया था, आत्मा गवाही नहीं दे रही कि अब चुप रहें, याचिका मैनें ड्राफ्ट भी करा ली, बस अकेले की वजह से थोडा नरवस था, मैनें इसमें लिखा है कि यहां तो प्राकृतिक रूप से बरसो से ही आक्सीजन तैयार हो रही है, फिर कारखाने के लिए इस जगह का चुनाव क्यों. .?
बल्कि नागरिको को अलग अलग इलाके में कुछ जमीन दी जाये, जिसमें वो सब मिलकर एक जंगल उगायें, उसे विकसित करें, थोडी सी जागरूकता के बाद सब इस काम में सहयोग करेंगें ही, किल्लत जमीन की ही तो है.. ।
हां.. .किल्लत जमीन की है, विकास की अंधाधुंध होड में हमने कंकरीट के जंगल जो खडे कर दिये हैं ।
लो. ..कोर्ट आ गया, चलो किसी वकील से बात करते हैं.. !
और अगर हमसे ये विकल्प पूछा गया कि फिर कारखाना कहां लगेगा, तो..!
तो क्या... ?
किसी भी पुरानी सरकारी इमारत में लगा ले, कुछ सरकारी उपक्रम बंद पडे हैं उन्हें पुनर्जीवित कर लें, नष्ट करनें से बेहतर तो पुनर्जीवन है..।
©®sonnu Lamba
Comments
Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓
बेहद उम्दा
संदेशप्रद
थैंक्यू @अर्चना 🌹 @संदीप भाई
आप बहुत अच्छा लिखती हैं ।
थैंक्यू दीपाली ❤
bahut hi badiya sonnu ji
थैंक्यू बबीता जी
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