बरसो से आंगन मे खडा बरगद...कब से...पता नही...क्या सोचता होगा? सोचती हूं अक्सर वो मुझसे बात करे ...कभी तो बताये अपने जी की..उस स्नेहिल से बुजुर्ग की तरह...जो.जीवन को आपाधापी में नही जीये...बल्कि सहज पके सो मीठा होय की तर्ज पर जीवन के अनुभव लेते हुए..एक एक सांस को महसूस करते हुए जीये.... जो झुरिर्यो से झांकती अनुभवी आंखो से भी बोलते है...उनके पास घडी दो घडी बैठ जाओ तो अपनेे कांपते हाथ सिर पर रख ही देते है....और आशीर्वाद खुद ब खुद आत्मा मे समा जाता है...आत्मा से ही तो निकलता है..।
ऐ बरगद ! तुझमे मुझे वही दादा दिखते है, जो अपनी जमीन से गहरे जुडे रहते है और सबको सँभाल कर चलतेे हैं... उनके होने से ही सब सुरक्षित महसूस करते है, किसी जीवन बीमा की जरूरत ही नही होती...उनके पास असीम धैर्य होता है जो वो अपने विचलित होते बच्चो को देते रहते है...और बच्चे उनकी छत्रछाया में फलते फूलते रहते हैं...।
लेकिन देख रही हूं..कुछ दिनो से बहुत उदास रहने लगे हो तुम.."
कहो.. उदास क्यूं रहते हो आजकल ...क्या तुम्हारा धैर्य चुक गया...पिढियों से झूमते रहे हो ...फलते फूलते रहे हो..जाने कितने पक्षियों को आसरा दिया तुमने ...उनकी भी कितनी प्रजातियों ने अपनी संतति को बढाया तुम्हारे तने की कोटरो में..तुम्हारे डैनो पर झूला झूल कर बडे हुए...कितनी रौनके आयी हैं तुम्हारे हिस्से में...."
और अब ये उदासी...तुम भी असुरक्षित महसूस करने लगे क्या? देखो कितनी तरक्की हुई है...तुम्हारी आंखो के आगे...इस पीढी के बच्चे विदेश तक चले गए... इस तरक्की से खुश नही हो....बरगद बाबा...।
कुछ तो कहो ...तुम्हारी खामोशी अच्छी नही लगती...देखो सारे पत्ते भी पीले पडते जा रहे हैं...कहां गई वो जीवंतता जो ओरो को भी जीने का होंसला देती रही...मुरझाये और निराशा से घिरे जीवनो में जीवनदायिनी आशा रोपती रही...।
एक गहरी सांस लेते हुए बोला बरगद...
"खुशी क्या और क्या गम .. मै तो निर्विकार हूं...सोचता हूं..अक्सर.. ऊंचाईयो को छूने मे कोई बुराई नही अगर अपनी जमीन का भान रहे तो....जडो से कट के क्या कभी कोई फला फूला है..।
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