मैं जब एकांत चाहती हूं ,
तो नही सोचती कभी कि,
मैं किसी चारदीवारी में बंद हो जाऊं..।
मैं हमेशा सोचती हूं...
बाग, बगीचे, झरने, नदी,जंगल
या समन्दर किनारे, अकेले..।
मन भीड से कतराता..
दुख और अपेक्षाओं से भागता,
हमेशा जा पहुंचता है...
किसी पहाड, पर्वत या घने पेड के नीचे .।
क्यों..?
क्योंकि नैसर्गिक वही है..
वही मौन जो प्रकृति में व्याप्त है,
वही प्रतिबद्धता जिससे सब चलता रहता है,
वही वह ऊर्जा है, जिसकी हमें जरूरत है,
जिसके बल बूते हम स्वचालित हैं,
वही अग्नि, वायु, जल,
आकाश, और मिट्टी हैं,
जिनसे हम गढे गये हैं ...।।
©®sonnu Lamba
Comments
Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓
So True
Thanks ji
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