सन् 2000 में मैने एक कविता लिखी थी...शीर्षक था *जी चाहता है.....**
उसमे बहुत ही सीधी सादी और कलात्मक चाहतें लिखी हुई हैं...जब मैने उसे कल दोबारा पढा तो मेरी नजरे सिर्फ दो लाइन पर ही अटक कर रह गयी कि बीस वर्ष पहले मैने ऐसा क्यू लिखा?....
"''जी चाहता है... मैं सपना बनू,
किसी बच्ची की आंखो मे पलूं,'''
सपना तो सपना ही होता है किसी की भी आंखो में पल सकता है...फिर मेरी कलम ने यहां भेद क्यूं किया तो मन ने जबाब दिया...बच्चियां सपने देख कहां पाती है....उनको सपने देखने ही नही दिये जाते ....उनको तो प्रशिक्षण दिया जाता हैं....समाज के पहले से तय मानदंडो के अनुसार जीने का....कैसे उठना है...बैठना है...चलना है...हंसना है आदि आदि....और जो बच्चिया इन मानदंडो से थोडा इतर सोच लेती है उन्हे बदतमीज कह दिया जाता है... कईं बच्चियां विद्रोहिणी भी हो जाती है और लडको की तरह व्यवहार करती हैं... ये गलत हैं...आप अपना मूल स्वभाव क्यूं छोडे किसी भी परिस्थिती मे....!
खैर ,बात सपनो की हो रही थी...बच्चियों को सपने देखने की इजाजत नही होती ...लेकिन कितना अच्छा लगता है कि कोई सपना आये और उन्हे चुन लें...कितने ही ऐसे सपने हुए जिन्होने बच्चियों के माध्यम से पूरा होने की ठानी और समाज की सभी परिपाटियो को पीछे छोडते हुए ,बच्चियो ने उनके साथ न्याय किया और धीरे धीरे जब ये उदाहरण बढने लगे तो बच्चियो ने भी सपने देखने शुरू किये ....और चुपके चुपके ही सही उनकी आंखो में सपने पलने लगें...देखा है मैने मासूम सी आंखो में जूगनुओं को चमकते हुए......।
✍सोनू....☺
(sonnu Lamba)
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