फेंक जाते हो तुम
जो कपडे...जूते मौजे..
नाश्ते की झूठी प्लेटे..
चाय के खाली कप..
उन्हे साफ कर करके ..
करीने से सजा देती है...."गृहणी."...।
और निपटाती है..बीसियो काम
जिन पर वो नही सुनना चाहती..उलाहनें...
अरे ..ये बटन नही टंका अभी तुमसे..
बहु...मेरी दवाई खत्म होने वाली है..
मां..मेरी फेवरेट बिस्किट नही लायी आप...
और ले आती है ,बाजार से ,ताजी...हरी सब्जियां..भी
जानती हैं...
बच्चे मुंह बिचकायेंगें इन्हे खाते हुए...
तो क्या..
छुपा देगी ..कहीं रोटी..पराठें में
गढ देगी कोई नया व्यंजन..
क्योंकी पोषण भी तो उसी का जिम्मा है..।।
कभी चुपके से आना अपने ही घर में..
सब करीने से सजा पाओगें..
पाओगें...वे चारदीवारी...प्रेम में है..
उस स्त्री के साथ...!
चली जाती है जब कहीं..
कुछ दिनो के लिए..वो
मायूस हो जातें हैं दरो दीवार..
और चीजे जिद्दी हो बिखर जाती हैं..इधर -उधर..।
नही मिलती तुम्हे...तुम्हारी ही चीजें
नाराज हो जाती हैं,तुमसे...
जैसे कह रही हों...
जल्दी क्यों नही बुलाते...उसको
और उसका स्पर्श पा खिल जाती हैं...फिर सें...।
खिल जाते हैं ...पायदान..
उसके कदमों को चूमते ही...
कभी महसूस करना..
घरवालो से कहीं ज्यादा..
घर रोया करते हैं...
गृहणियां जब गुजर जाती हैं।।
©सोनू लाम्बा (sonnu Lamba)
Comments
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रचना की अंतिम पंक्ति पढ़कर आँखों में आँसू आ गए।
गृहणी की महिमा का बखूबी वर्णन
सुंदर
शुक्रिया संदीप, आपने उतनी ही संवेदनशीलता से पढा, जितनी इसे लिखा गया है.!
@पूनम जी, बहुत बहुत धन्यवाद
वास्तविक वर्णन
धन्यवाद तूलिका जी
Heart touching, beautiful
थैंक्यू सखि
बहुत ही सुंदर एवं सटीक
बहुत बहुत धन्यवाद जी 🙏
Touching
Thanks ekta ji
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