(कहानी..)
ये दौलत भी ले लो,
ये शौहरत भी ले लो,
भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी,
मगर मुझको लौटा दो,
वो बचपन का सावन,
वो कागज की कश्ती, वो बारिश का पानी... "
म्यूजिक प्लेयर पर गाना बज रहा था...
जगजीत सिंह की आवाज कमरे की दीवारो से टकराकर कानो में एक अजीब सा इको पैदा कर रही थी, तड़प, बैचेनी बनकर उभर रही थी ...।
वैसे तो ये हमेशा से ही मेरी पसंदीदा गजल रही थी, मैं अक्सर ही इसे सुनती रही थी, हर बार इस गहरी आवाज को सुनकर चमत्कृत होती, कभी इसके बोलो पर अटक जाती क्या लिखा है, पूरा बचपन यादों में उतर आता था, इसको सुनते ही...
मौहल्ले की सबसे पुरानी निशानी,
वो बुढिया जिसे बच्चे कहते थे नानी,
वो नानी की बातो में परियों का डेरा,
वो चेहरे की झुरियों में सदियों का घेरा... "
भूलाये नही भूलता है कोई ,
वो छोटी सी रातें, वो लम्बी कहानी... "।
वाह... भला कौन सा मौहल्ला था तब ऐसा, जिसमें वो बुढिया ना मिलती हो.. बचपन की गलियों में ले जाता ये गीत आज इतनी बैचेनी क्यों पैदा कर रहा है... ?
हाथ बढाकर म्यूजिक प्लेयर बंद भी किया जा सकता है ,लेकिन नही कर रही हूं.. क्योंकि भीतर की उमस तो तब भी रहेगी ,गाना ही तो बंद हो जायेगा,आज बाहर भी तो उमस बहुत है, मौसम बारिश का है लेकिन, बारिश भी तो नही होती , बादल उमड घुमड कर ही रह जाते हैं, और ये अकेलापन... असली उमस तो यही है ...!
दोनों बच्चे जब से होस्टल गये हैं, पढने ,तब से वो कितनी खाली हो गयी है, उसने अपनी सारी दुनिया ही उनके इर्द गिर्द बना ली थी, एकदम से मिला ये खालीपन उसे रास ही नही आता है, अब उन्हीं कामों में मन नही लगता है, जिन्हें वो चुटकियों में निपटा देती थी पहले....! कभी कभी तो खाना बनाना भी बोझ सा लगता है.... और पतिदेव तो आफिस से ही देर से आते हैं,हमेशा से ही. ..अब कुछ नया भी नही है ये... जो शिकायत करूं..!
,अक्सर अपने मन का हाल बताने की कोशिश भी करती हूं कि शायद मेरे भाव समझ आ जायें तो अपने लैपटॉप पर नजरे गडायें कुछ भी बोल देते हैं..
"शापिंग चली जाया करो,"
"किट्टी विट्टी जोइन कर लो", वो जो लेडीज लोग करती हैं,
और मैं ओर ज्यादा खीझ जाती हूं, कि इनको पता है मुझे इस तरह की चीजो में हमेशा से ही कोई रूचि नही थी, अब क्या..... होगी, कहना ही बेकार है इनको समझ नही आयेगा...!
इस उमस की तरह मन में अवसाद भी बढ गया था ,इस घुटन से घबराकर,अब मैं कमरे से निकलकर छत पर आ गयी थी, कुछ तो ताजी हवा मिलेगी, छत पर आकर थोडा अच्छा लगा, आसमान में बादल अभी भी घुमड रहे थे, और मैं सोच रही थी, कि क्यों इतना घुमडना, बरस क्यूं नही जाते,..?
और तभी पहली बूंद मेरे चेहरे पर आकर गिरी.. आज शायद कुछ ओर मांगती वो भी मिल ही जाता, लेकिन ये भी कम सूकूनदायक नही था, आज मैं पहले की तरह छत से भाग कर नीचे नही गयी, मैं भीगना चाहती थी और बारिश भी धीरे धीरे तेज हो रही थी..!
मैं भी चीखना चिल्लाना चाहती थी, हाथ फैलाकर पूरी बारिश को समेट लेना चाहती थी.. छत के एक कोने में जमा पानी को आज निकालना नही चाहती थी, उसमें कागज की नाव चलाना चाहती थी जैसे बेटियों के बचपन में उनके साथ चलाती थी, वे जबरन खीच ही लेती, मां आओ ना, हमें नाव बनाकर दो, मैं नाव बनाती और बेटियां उनसे खेलती और इस तरह वे मुझे भी भिगो देती थी, ..।
और अपना बचपन वो तो बहुत ही हैपनिंग था, जब बारिश होती, पूरे गांव का पानी, उसके घर के आगे से नदी की तरह बह कर जाता और वो दरवाजे पर खडी हो उसमें अपनी नाव, बहाती और दूर तक उसे जाते देखती ,जब वो ओझल हो जाती आंखो से, तो दूसरी नाव पानी में रखी जाती और ये सिलसिला अनवरत चलता, जब तक बारिश रूक नही जाती, वो ख्यालों में इस तरह खोयी कि, उसे आसपास क्या हो रहा है, भान ही नही रहा... तभी पीछे से आवाज आयी,..!
"चलो आज नाव चलाते हैं इस पानी में ..
मैं बनाकर लाया हूं, नीचे से... "
पतिदेव बोल रहे थे...!
आप.. आप, कब आये मुझे पता ही नही चला,"
"वो सकपका गयी, एकदम से.. "
अरे..! चौंकों मत..
जब घंटी बजाने पर ,दरवाजा नही खुला तो अपनी चाबी से दरवाजा खोल अंदर आया, तो देखा तुम नही हो, छत का दरवाजा खुला है ..और म्यूजिक प्लेयर पर... तुम्हारा गाना बज रहा था,
.."वो कागज की कश्ती, वो बारिश का पानी "
तो मुझे बात समझते देर ना लगी, कि तुम छत पर ही मिलोगी.."
और आपको गुस्सा नही आया ....!
"जानकी..." कहते हुए उन्होने मेरे होठो पर उंगली रख दी,
बस.... अब जल्दी से ये नाव, चलाते हैं, ये तो मेरे हाथ में ही भीग जायेंगी ....तैरेंगी कैसे फिर.. ?
और मेरी आंखो में घुमडते बादल अब खुद को रोक ना सके... अब तक तो मैं ऊपर ऊपर से बारिश में भीग रही थी, अब मन भी भीग रहा था, और पतिदेव मेरे आंसू देख भी नही पा रहे थे, बारिश में रोने का एक यही फायदा होता है... लेकिन ये क्या आज उनकी आंखे भी भीगी थी, और मैं बारिश में भी देख पा रही थी..।।
©®sonnu Lamba 😊
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