कान्हा ..!
वृंदावन की उन गलियों में,
जहां तुम माखन खाते थे,
सबको अपने मोह मे बांध,
रह-रह तुम इतराते थे ,
क्या उन गलियों में ,
साथ तुम्हारें मैं भी थी,
कोई गोपी ,गैयां तुम्हारी,
या कोई पेड़ तो हूंगी ही,
कैसे जानूंँ ...मैं अकिंचन,
तेरी अदाओं पर मोहित हूंँ ,
मटकी ,बंशी ,माखन ,मिश्री ,
सबमें तुझको पाती हूंँ ।
जानती हूंँ मैं....
मथुरा ,वृदांवन, द्वारिका या हस्तिनापुर
इनसे ज्यादा विस्तृत है, कृष्ण
सब पर भारी है एक अकेला सुदर्शन,
लेकिन मेरा कान्हा ....ईश्वर है ,
मन ये सोचना नहीं चाहता है ,
सखा़प्रेम से दूर भला कौन होना चाहता है ।
©®sonnu lamba
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