अगर मैं डॉक्टर होती....! सोचते हुए माथे से कुछ बूँदे सरकते हुए मेरे कानों को भिगोने लगी, आज एयर कंडिशन कमरे में बैठकर गर्मी गर्मी चिल्लाने वाली मैं क्या सह सकती थी वह सब जो एक डॉक्टर सह रहे हैं।स्मिता से बात करने के बाद लगातार मन की सीढ़ियों पर भावनाओं की लहरें उफान मार रही हैं।
पिछले कुछ महीनों ने मेरा जीवन के प्रति नजरिया बदल दिया है। पहले लॉकडाउन और अब वर्क फ्रॉम होम! ऐसा लगता है बाहर की दुनिया देखे सदियाँ बीत गई हैं। मन कचोट रहा है। चार दीवारों को देखते देखते अवसाद सा हावी होने लगा था कि अचानक अपने एक मित्र की याद आ गई। कांटेक्ट बुक निकाल कर उसका नंबर मिलाया तो उधर से उसकी वही चिर परिचित, मीठी सी मंत्र मुग्ध करती आवाज सुनकर मन झूम उठा। लेकिन अगले ही पल जो उसने बताया वह जानकर मुझे बहुत आश्चर्य हुआ साथ ही गर्व भी महसूस होने लगा।
स्मिता ने मुझे बताया कि वह बेटी के जन्म के बाद से ही घर पर मातृत्व अवकाश लेकर रह रही थी, इसी बीच महामारी ने भारत में दस्तक दे दी। मरीजों के बढ़ते आंकड़ों के कारण डॉक्टर की कमी हुई तो उसे भी अस्पताल से पत्र मिला कि अगर वह इस समय वापिस जॉइन कर सके तो यह मानवजाति की सबसे बड़ी सेवा होगी। स्मिता ने बिना वक़्त गवाएं अपनी 3 महीने की बच्ची को आया के पास छोड़कर अस्पताल जॉइन कर लिया। पिछले तीन महीने से वह निस्वार्थ, अपनी जान और परिवार की परवाह किए बगैर, मरीजों की दिनरात सेवा कर रही थी। तमाम सावधानियाँ बरतने के बाद भी पिछले सप्ताह उसे हल्का बुखार महसूस हुआ जो कि 24 घंटे बीतते बीतते तेज़ बुखार और खांसी में बदल गया। स्मिता ने अपना टेस्ट कराया जिसमे वह कोविद् 19 पॉज़िटिव पाई गई। उसके परिवार में आया के साथ साथ उसकी 6 महीने की बच्ची और पति भी इस महामारी की चपेट में आ गए हैं। अस्पतालों पर बढ़ते मरीजों के बोझ को देखते हुए उसने घर में ही सबको अलग अलग कमरों में रखकर सबका इलाज शुरू कर दिया है।खुद संक्रमित होने के बाद भी उसके जज्बे में रत्ती भर की भी कमी नहीं आई है और वह अभी भी घर से ही इलाज करने के अपने फैसले पर अडिग है। उसने मुझे बताया कैसे अस्पतालों में आम जन के लिए एक एक बेड कीमती है और जब तक स्थिति नियंत्रण में है वह घर से ही इलाज जारी रखेगी।
इतना ही नहीं वह जूनियर डॉक्टर को विडियो कॉल के जरिए निर्देश देकर अपने मरीजों का भी ध्यान रख रही है।
स्मिता से बात करने के बाद मन अतीत की गलियों में विचरण करने लगा। हम दोनों एक ही कक्षा में पढ़ते थे। मैं हमेशा ही उससे पढ़ने में बीस रही किन्तु यह मेरी नियति थी कि मेडिकल परीक्षा में मैं पिछड़ गई और वह बहुत आगे निकल गई। मन में कड़वाहट रखकर कितने ही साल मैंने उससे बात तक नहीं की थी, लेकिन आज की परिस्थितियों को देखते हुए मन में यही आ रहा है कि अगर मैं डॉक्टर होती तो क्या इतना समर्पण इतनी निष्ठा दिखा पाती! मैंने तो हमेशा नोटों के ढेर से ही एक डॉक्टर की तुलना की थी और शायद यही वजह भी थी कि मैं भी डॉक्टर बनना चाहती थी किन्तु वास्तविक समर्पण और संयम तो मुझमे कभी था ही नहीं जो शायद इस पेशे के लिए सबसे अहम है। ग्लानि और गर्व के मिश्रित भावों से मेरी आँखों से दो बूँद जाने कब लुढ़क कर बाहर निकल आई और मैंने पहली बार हृदय से एक डॉक्टर को धन्यवाद दिया।
सोनिया कुशवाहा
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