लॉकडाउन सिरीज़ की पाँचवी पोस्ट में आज मैं आप सभी को अपनी लिखी एक ताज़ातरीन लघुकथा सुनाने वाली हूँ। यह लघुकथा पूरी तरह से समसामयिक है और पिछले दिनों हुई कुछ घटनाओं के परिणाम स्वरूप मन में चल रहे भावों का परिणाम है। वर्तमान महामारी के संदर्भ में आशा है आपको यह कथा पसंद आएगी। कल का दिन इस कथा के नाम ही रहा। कथानक कथ्य और संकल्पना पर पूरा एक दिन काम करने के पश्चात आपके सामने यह रचना पेश कर रही हूँ।
लघुकथा
शीर्षक - वायरस
वह प्रसन्न था, गर्वित था. मगरूर हो वह इस देश से उस देश, इस शहर से उस शहर घूम रहा था। उसका खौफ ऐसा था कि जहाँ उसके आने के पदचाप सुनाई पड़ते क्या आम और क्या खास! हर कोई सिमट कर अपने घरों में कैद हो जाता।सड़कों पर पसरा सन्नाटा, प्रकृति का खुल कर रंगों से किया हुआ श्रृंगार, और आसमान में बरसों बाद बिन धुएँ के चमकते तारे गवाह थे इस बात के, कि हर दिल में उसकी दहशत समा चुकी है ।
पूरे देश को भय से काँपता देख उसने ज़ोरदार अट्टहास किया। खबरिया चैनल पर लगातार बढ़ते मौत के आँकड़ों को देख वो खुशी से दोहरा हुआ जा रहा था। उसके मुख से गर्व मिश्रित ध्वनि गूँजी, "मैं ही हूँ आज तक का सबसे शक्तिशाली वायरस। मैंने कुछ ही दिनों में कितने ही मनुष्यों को लील लिया और सैकड़ों अभी भी कतार में हैं।"
एक जोरदार विस्फोट ने उसका ध्यान भंग किया। उसने देखा खबरिया चैनल पर धार्मिक दंगों में हुए विस्फोट की खबर चल रही थी। हज़ारों लोगों के मरने की खबर मोटे अक्षरों में छपी थी। धमाके की तीव्रता ने कथित वायरस का परिचय वास्तविकता से करा दिया था। वह समझ गया था 'इंसानों के बीच आज भी सबसे खतरनाक वायरस सांप्रदायिकता ही है।'
सोनिया निशांत
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