लॉकडाउन की घोषणा होते ही कैसे लाखों लोग पलायन करने लगे। सड़कों पर लोगों का जमावड़ा देख आपको भी लगा होगा कितने जाहिल हैं ये लोग। लेकिन क्या कभी आपने जमीनी स्तर पर हकीकत जानने का प्रयास किया?
आजकल जीवन की रफ्तार इतनी अधिक है कि हम दौड़ते हुए कब संवेदनहीन हो गए पता ही नहीं चला। किसी गरीब को देख निगाहें घुमा लेना कितना आम हो गया है। संवेदनाओं को जागृत करती एक कथा आपको सुनाती हूँ।
कहानी-पुनर्जन्म
पतझड़ के मौसम की उमस भरी शाम थी। पता नहीं यह मौसम की उमस थी या मेरे भीतर की घुटन कि उस एक कमरे के मकान में रुकना मेरे लिए मुश्किल हो रहा था। वहाँ रुक कर भी क्या होने वाला था! स्थिति मेरे नियंत्रण से बाहर हो चुकी थी। अपने मन को राहत देने के लिए मैं बाहर नीम तले बैठ गया। हवा से उड़ते सूखे पत्तों की खरखराहट मेरे मन को और भी बेचैन कर रही थी। ऐसा लग रहा था जैसे कह रहे हों कि रंग बदलते ही पेड़ ने भी उनसे अपना रिश्ता तोड़ लिया है।
मुझे याद आया अभी कुछ दिन पहले तक यही पेड़ हरा भरा था, सिर्फ़ यह पेड़ ही नहीं मेरा जीवन भी तो हरा भरा था।
बाप की शक्ल तो मुझे याद नहीं और माँ मेरे सत्रह के होते होते चल बसी थी। पढ़ाई लिखाई में मैं बिल्कुल कोरा कागज था इसलिए मेहनत मजदूरी को ही भाग्य समझ हमेशा दिल लगा कर काम किया।
22 का होते होते सुखना के साथ ब्याह हो गया था। मेहनत मजदूरी करके दो बखत की रोटी का इंतजाम हो जाता था। हम दोनों चैन से रोटी खाकर ईश्वर का धन्यवाद करते थे। फिर सुखना ने मुझे अपने जैसे दो सुंदर, सयाने बच्चों का बाप बना दिया।
हाथ थोड़ा तंग रहने लगा था। लेकिन सुखना ने उसका भी उपाय ढूंढ़ निकाला! हम एक बखत चटनी से रोटी खाने लगे। मैं, सुखना और हमारे दो बच्चे। ना ज्यादा पाने की चाहत थी न कम होने का कोई गम। सुखपूर्वक दिन बीत रहे थे कि दिन सुखना ने बताया वो फिर से मां बनने वाली है। पता नहीं बात खुशी की थी या दुख की हम दोनों के चेहरे कई दिन तक सफेद पड़े रहे। वो मुझसे निगाहें चुराती रही और मैं उससे। जो ईश्वर को मंजूर था वही हुआ। 6 महीने बाद एक कमजोर सी बच्ची ने जन्म लिया। सुखना की देह में जितनी जान थी उसके हिसाब से फिर भी यह बच्ची काफी वजनदार थी। चुटकी की खातिर दूध का खर्चा बढ़ गया था। हम किसी तरह चंद रुपयों में सब समेटने का प्रयास कर ही रहे थे कि एक बिजली हम दोनों पर आन गिरी ।
चुटकी सामान्य बच्ची नहीं थी। किसी गंभीर बीमारी से ग्रस्त थी। उसके शरीर का खून जैसे पानी बनता जा रहा था। सरकारी अस्पताल से उसे बड़े अस्पताल भेज दिया था। हफ्ते में एक दिहाड़ी तो उसे शहर ले जाकर दिखाने में निकलने लगी। दवाइयाँ, दूध और हफ्ते में दो दिन काम पर न जा पाने की मजबूरी में हमारे भूखों मरने की नौबत आने लगी। मेहनत मजदूरी से मिले पैसों से समझ नहीं आता था कि पेट भरने को राशन खरीदूँ या चुटकी की साँसें।
आखिर कितने दिन भूखे रहते! अपने पेट की आग को भूल भी जाऊँ लेकिन उन मासूम बच्चों का क्या कसूर।
मेरी भरी आँखें बरसने ही वाली थी कि एक तेज़ स्वर से मेरा ध्यान भंग हुआ।
"अरे खिलावन जल्दी चल तेरी चुटकी...."
उसके आगे के शब्द सुनकर एक पल के लिए मैंने गहरी साँस ली। आँखें बंद की तो सबसे पहले दोनों बच्चे रोटी खाते दिखे। मुस्कुराहट होंटों तक आते आते आँखों से बरस पड़ी। समझ न आता था ये आँसू एक संतान को खोने के हैं या दो को पा लेने के।
सुखना की छाती पीटने की आवाजें मेरा दिल दहला रही थी।मैं थका हुआ था सा घर की ओर बढ़ चला था।
कभी कभी किसी एक की मृत्यु कइयों को पुनर्जन्म दे जाती है।
सोनिया निशांत
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