धरती का सीना चीरकर
जब बोया था कनक उसने
प्रकृति मुस्कुराई थी
लुटाई नेमतें उसने
पीकर के जल सरिता का
जीनाकीर्ण हुई जब नस्लें।
रहने को घर बनाए फिर
काट दिए वन मनुज ने,
आँसुओं से फिर प्रकृति के
आ गई बाढ़ धरती पर
कर कर के दोहन उसके हर अंग का
तोड़ दी शोषण की दहलीजें
सहते सहते धरा भी अब
चीत्कार उठती है
कभी भूकंप कभी सूखा
कभी अगणित बरसात गिरती है।
वो माँ है फिर भी
आखिर कब तक सहती जाएगी
सुधारने को मनु को
अब वो फटकार लगाएगी।
छीन लेगी एक झटके में
साँसें भी वह तुझसे
तुझे वह दो पल में
महामानव से
आदिमानव बनाएगी।
सोनिया कुशवाहा
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