ज़िंदा लाश

नैराश्य भाव से उत्पन्न कविता..

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Sonia saini
Sonia saini 20 Feb, 2020 | 0 mins read

ज़िंदा लाश....

बोलती हूँ तो कंठ से

वाणी अवरुद्ध हो जाती है

हँसना चाहूँ तो जाने क्यूँ

ये मुस्कुराहट मुझसे नजरें चुराती है।

कलम लेती हूँ जब हाथ

लेखनी अपाहिज हो जाती है

नैराश्य की अग्नि

भीतर सुलगती जाती है,

ये दीवारे जाने क्यूँ

हर पल नीचे धंसती जाती है।

नहीं मैं चुलबुली तितली अब

ना ही बाबुल के आँगन की

सोन चिरैया हूँ

इन चार दीवारों के

भीतर ही अब मेरा बसेरा है

ये घर नहीं कब्र हो मानो

साँसें अटक अटक के आती हैं

दर्द के अतिरेक को दफ्न किए

जाने क्यूँ आँखें भी नीर नहीं बरसाती है

जज्बात भी अब तो सीने में

आने से घबराते हैं।

फिरती हूँ इन हूँ इन दीवारों के भीतर,

निष्प्राण, निःश्वास..... ।

चुप लगाए होंठ,

चलती साँसें,

और खुली आँखों वाली

हाँ मैं हूँ एक ज़िंदा लाश!!

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