याद आती है मुझे
हरे भरे खेतों से निकलती
वो संकरी डगर,
पनघट का नज़ारा
मेरा गांव मेरा घर।
चौपाले सजती थीं कभी
कहीं लगता था बच्चों का मेला,
नहरों में गोते लगते थे
वहीं, गांव की गोरियां
चलती थी शान से
उठाकर एक साथ कई गगरियां।
खुले अंबर तले
बिछ जाती थी खटिया
मीठे सपनों से होती थी बात
ना फिकर कोई
चाहे दिन हो या रात।
लम्हा लम्हा गुजरता गया
रंग-ढंग भी बदलने लगे
कई भूल के गांव के रास्ते
नई मंजिलों की तरफ बढ़ने लगे
शाम वही, मोड़ वही
मौसम वही, भोर वही
पर कदमों के निशान
धुंधले से दिखाई पड़ते हैं।
गलियों के उन कोनों से
गूंज सुनाई पड़ती है
एक बार तो आओ
सूने पड़े जो रास्ते
उन पर फिर से
गुज़र के तो जाओ।
मैं फिर लौटूंगा उन रास्तों पर
अपने कदम की छाप छोड़ने को
उस बहती हवा में फिर से सिमटने को
खुले आसमान में सांस भरने को
मेरे गांव की मिट्टी
मैं फिर से लौटूंगा।
Comments
Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓
बहुत सुंदर रचना❤️
Very good 💐💐
Thanks Sunita 😊
Thanks Neha😊
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