लगे क्यों जैसे वक्त थम सा गया है
मन किसी मोड़ पर आकर रुक सा गया है
ख्वाहिशें पाबन्दियों में घिरी सी लगे
लगे जैसे सपनों पर पानी फिरा है
क्यों लगे जैसे जीवन से रंग उड़ा है
सोच पर भी नकारात्मक असर हुआ है
लगे क्यों जैसे आंखों का काजल बिखरा है
कभी लगे दिल में सावन उतरा है
विरह की वेदना में लगे दिल जला है
लगे क्यों जैसे सूना दिल का आंगन हुआ है
शब्दों का जाल कुछ उधड़ा हुआ है
प्रेम का अहसास क्यों फीका पड़ा है
कोशिशों का सिलसिला भी रुक सा गया है
लगे कभी उम्मीद बुझ सी गई है
हसरतें दिल के भीतर कहीं छिप सी गई हैं
क्यों हंसी पर मायूसी का पहरा हुआ है
क्यों बढ़ता नहीं.....आगे निकलता नहीं...
ऐ वक्त! क्यों तू ठहरा हुआ है...
क्यों यहीं तू ठहरा हुआ है...??
Comments
Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓
बेहद उत्कृष्ट रचना। यथार्थ सृजन
Thank you Sandeep 😊
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