कितनी बार कहते सुना है
अरे, समय ही नहीं मिलता है
काम से फ़ुर्सत ही नहीं मिलती
आदतों को बदले भी तो कैसे
क्या ये वास्तविकता थी या
था बहानेबाजी ....
दिनोंदिन आत्मा मरती गई
मनुष्यता की आर्थिकतावाद में
लोग मारते गये प्राकृति को
अपनी आधुनिकता की भाग में
अनजाने में या जान बूझकर
पिसते गए ख़ुद ब ख़ुद
ऐसे नज़र अंदाज़ करते थे
सभी बातों को
मानों उनका जीवन ही नहीं
या उधारी में ही जी रहे
मन को मना लिया था
या यूं कहूँ कि समझा लिया था
जो चल रहा है उसे चलने दो
जो हो रहा है उसे होने दो
जो होगा उसे भी देखा जाएगा
ना पता था एक दिन
एक को रोना झटका आयेगा
और ये सभी आदतें
एक पल में बदल जायेगी
ना ही लेंगी कुछ साल
ना ही लेंगी कुछ महीने
ना ही कुछ दिन
ना ही कुछ घंटे
ना ही कुछ मिनट
और ना ही लेंगी कुछ घड़ी
ये तो बस एक पल की
गुलाम बन जायेंगी
पूरे विश्व की रचना
एक कीड़े मकोड़ों सा अस्तित्व लिये
जिसने अनवरत भागमभाग मचा रखा था
एक अति सूक्ष्म अदृश्य वायरस
बदल डालेगा सबकुछ
और गुरु वक़्त की सूक्ष्म इकाई
बता जायेगी समय की महत्ता
कि किया जा सकता है वो सब कुछ
जो तुम ठान लो मन में
बदला जा सकता है सब कुछ
जो तुम मान लो मन से
नहीं लगता थोड़ा भी वक़्त
बदलने में किसी भी चीज़ को
देखो ना ये सृष्टि पलट गई एक ही सीध में...!
जो हुआ सो हुआ
जो बीत गई सो बात गई
अब भी जाग जाओ सचेतन हो
क्योंकि जब से जागो तभी सवेरा है
जो आज नहीं वो कल मेरा है।
स्वरचित व मौलिक
विजय लक्ष्मी राय "सोनिया"
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