यूं तो देखे थे हम भी बढ़िया... बढ़िया लोगन को , लेकिन ई दुबे जी की नाही नहीं ,जहांँ जाते रहे... वहीं लोग छपर जाते रहे, मानों "मधुमक्खी का छत्ता"। उनका इतना भौकली था कि उनके एक फ़ोन पे सभी संगी साथी बनबनाते दौङे चले आते ,,,, "बोला ,के के मारे के हव " ( ई यहां के लोंडो का मानो तकियाकलाम है)....हमेशा सूरक्षा के लिए तत्पर।
औउर दुबे जी की बात की जाय तो उनके हर बात में जब देखो तब " जिया रजा की " वीर रस को लपेटे हुए बोलना ,भोले बाबा का प्रसाद बाँटने जैसा लगता ... , "जा बेटा तोहरे जईसन के रोज़ चराईला" मंडली में चलते.... चलते.... सिना चौङ़ा करते ,कॉलर को उठाते ,कुर्ता के बांही को मोड़ते ,बोलते हुए निकल जाया करते ...मानों बनारस के हर गली की शान थे ई दूबे जी । मानों यहाँ की हर गली , नुक्कड़ , दुकान ,गोमटी के दिन की शुरुआत के लिए इनही का इन्तजार करते । एकदम... मस्त.... कभी "आवा रजा लस्सी लड़ाई लेहल जाय" तो कभी... "आवा ठंढई लै लिहल जाय" ...त चल..."आज मिश्राम्बू पि लिहल जाय सरवा".....। एकदम अल्हड़.....
बनारसी लङका जो राजनीति में भी एकदम आगे.... पेट निकाले खड़ा रहता.... उ अलग की बात है कि बेचारा खाता कम था...लेकिन तोन्द साथ नहीं छोड़ता। लेकिन मतलब ई नहीं कि पेट निकला था तो हैंडसम नहीं था। हैंडसम तो इतना था कि BHU की ना जाने कितनी लड़कियां उस पर मरती थीं लेकिन मज़ाल का कि... ई गुरू... केहू को लाइन दई .. दे ।
तो ...गुरू ई हुई दुबे जी की बखान... चाहे उनका व्यक्तित्व ही कह... लिजिये लेकिन..अब जब उनके व्यक्तिगत जीवन की बात की जाय तो उनके दिल की बात तब खुली जब पता चला कि ऊ रोज़... गोदौलिया पे एक पान की गुमटी पर.... सवेरे... सवेरे... 8 बजे पहुंच जाया करतें हैं चाहे साडन की वजह से कितना भी जाम हो "उ रजा" तीरे... तीरे... होई... निकल.. अपने प्यार का घंटा बजा ही लेते हैं ।
अच्छा एक बात औउर.....(अचानक से याद आयी) तभी उह दिना बहुत मगन होई होई बनारसी साङी खरीदत रहेन ... भनक तो लगा लेकिन कोई इतना नाहीं सोचा था कि...गुरू दूबे ई गुण खिलायेगा।
जब बात छिङी सबके बीच.... में ...तब सब ठहाका लगाई हँस पङे ..... कि " का रे गुरु औरी कोनो ना मिला सवेरे... सवेरे... मुल्ला बनावे के खातिर...., हम ही मिलें हैं.... उ दूबे का करी प्यार...व्यार "।
यथाकथित्... तहलान के वक़्त जब नज़ारा सभन के सामने था तो मस्मासाय... रह गये सब । सांप सूँग गया ,कुछ बोल ही ना... सके..सब ,जब उ गोदौलिया पर सबके बीच...अकेले.. अकेले..दूबे को अपने आंँखों के पिचकारी से प्यार के रंग को खेलते देखा तो... मंडली चकमकायी गई... , विश्वास ही ना होई रहा थि , कि का बे...( दाढ़ी पर अफसोस की अँगुलियों को स्थापित करते हुए... ) ई वही दूबे हैं जोन ना जाने कितनों को चराता था.... और कितना भौकाली मारता था.....!!
अब तो ग़ज़ब होई गवा रहा जब दूबे जी धरे गये ,का था.... लजा के सकपकाई गये गुरू.... जब उनको उस सफेद सलवार समीज वाली लड़की को एकटक देखते रंगेहाथ पकड़ा गया। बात को घुमाने लगे कि..." उ ....अम्मा.... भेजे रहिन..। साङी के फाल लावे बदे.. , उ का है कि फगुआ ( होली ) है ना.... तो ऐही लिए हमको गोदौलिया आना पङा "...ई .....और.... उ ....लेकिन प्यार के रंगों के छिटे तो साफ ही दिख रहे थे... वैसे भी रंग अपना छाप तो छोड़ ही जातें हैं उ चाहे प्यार के रंग की बात की जाय चाहे होली के रंग की.....।
और उधर से वो भी शरमाते देखती ही जाई रही थी ये भी थी तो थोड़ी मोटी ही.... लेकिन देखने में मानों चांँदनी सी....,एकदम भोली मासूम सी...., अगर मोटा - मोटा देखा जाय तो दोनों की जोड़ी भोले बाबा और पार्वती मांँ से कम भी ना थी। तो इसी लगे हमनें भी सोच ही लिया कि चलो रजा बाजा बजबा ही दिया जाये हम तो हैं ही बाराती और नंदी भी खोज ही लाएंगे...।
लेकिन ई का हुआ भाई सब "गुड़ गोबर होई गवा",,, ई दूबे जी भी ना.... सब गड़बड़ कईईई दिहे बिन बात के भौकाली.. , इतनी लड़कियां मरती हैं इनपे, वो भी अपने जात की तो भी... इनको बनियांइन ही मिली थी सरवा,, माना कि सुंदर है लेकिन सुंदर तो औउर भी हैं...।
अबे.... तुम भी सरवा के ना...... ,, कोई प्यार भी जात पात पूछ के करत है का बे.. साले बैल.... ........अपने कभी हुआ भी है प्यार...जोन पता भी होगा......,,।
चलो बे... अब छोड़ो...!! पता लगाओ इसकी पूरी जन्मकुंडली,,,,
अरे.. !! बे फोन किहे रहे...अपने गुप्तचरों को एक बनिया दोस्त रहता है उसी मोहल्ला में ... बोला है...उसको मैने..., बताएगा..जल्दी ही..।
ट्रिंग.....ट्रिंग.....। ,
अबे .....!
तुम तो डरा ही दोगे...... साले.....
अईसा रिंगटोन लगाये हो चूनके...
कोन लगाता है बे अईसा रिंगटोन....
झमाझम डिजे पार्टी....।
रुको..रूको ... बे..... साले
उसका फोनो आ गया.. ।
अबे..! मुहवां में का पनवा तो थूक लेव...बस दिन्नभर पाकुर..... पाकुर.....
वैसे तो बनारस की ख़ास बात हम आपको बताई दें कि.... ईहां कोई चेला नाहीं होता ..,,, सब गुरू ही गुरू होते हैं परंतु कुछ लोगन को चेले का दर्जा दिया जा सकता है जो की नायक से ज्यादा नायिका अर्थात् भौजी के लिये परेशान रह.. ते हैं ।
आ...!! का ...का... मतलब .... मुंँह खुला का खुला रह गया।
अबे बोलेगा भी कि...... का.... हुआ..का बताया उसने...???
का.... बोली वे.... ??
ई दूबे कोनो गली के ना छोड़ा..!!!
काहे बे.....???
कुछ बोलेगा भी...कि..... बस...!!!
अरे..!! उ विधवा है ...., उसका वियाह होई चुका है ...,, पति नाहीं है...,, अब अपने मामा के ईहाँ रहती है,,।
दूसरे का भी मु...खुला का खुला....क्कका..खुला..!!
अबे बंद कर मोछू के दुकान की हैजा वाली मक्खी पईठ जाई... रज़ा... क... तब समझ आयी।
अब का बे..का करल जाय अब....! कपार काजुआते हुए...।।
अब का चल चलल जाए दूबे के लग्गी...।
चल बे... हम जाई रहे हैं घरे ......अम्मा हमरी बुलाई हैं। कुछ सामान लावे बदे कल फगुआ जोन है ....ना गये तो आज तो गंगा मैया के घाटय पे ही सोना पड़िगा।
चल बे,,,, चलल जाय कल फरियोयता होई।
दुबे का बे..???
तुझे पता भी है उसका वियाह होई चुका है..।
उ विधवा है..!! अबे..... तुमको लड़कियन की कमी थी का ..... जोन तूमको यही पसंद अायी.... और ऊपर से जात की बनियाइन..।
चुपैचाप खड़ा दुबे..... एक दम समंदर की गहराई सा शांत था फ़िर लहरें उठीं आवाज़ आयी - " इसमें हमदोनों के बीचे पनपे नन्हे , मासूम , प्यार की का ग़लती ..का उसको अधिकार नाहीं प्यार करने का या ये बनारस की विधवा प्रथा को आगे बढ़ाने के लिये बनी है ...?? औउर मेरी बात की जाय तो प्रेम का असल स्वरूप उसी के रूप में देखे हैं हम । शायद जितना प्रेम पवित्र है उतनी ही वो.....जितनी हमारी अम्मा निर्मल है उतनी ही वो....जितना ये बनारस शुद्ध है उतनी ही वो...उसकी सादगीभरी खूबसूरती देखा है तुमने.. उसकी हर अदा मानों प्रकृतिक सुन्दरता की अलग अलग दासतां सुना रही हो...हमेशा मुझे नीची नज़रों से भरपेट देख लेती है और मैं नज़रों को उठा कर उसे रोक लेता हूँ जाने से ,उसका मुझसे यूँ दूर भागना मुझे उसके औउर पास ले जाता है। जिन सांसो के चलते जीवन था मेरा उन सांसों को भी अब जाके पहली बार महसूस किया सिर्फ उसी और उसी की वजह से। एहसासों को भी पहली बार जाना उसको जानने के बाद। किसी के ख्यालों में खोना, किसी की एक झलक पाने के लिए एकदम से बेकरार होना ,.उससे प्यार के बाद ही समझा...। जिसने मुझे जीते जी सजीव किया है... जीवीत किया है... वो अपवित्र कैसे हो सकती है.. बताओगे तुम..." ।
" हाँ, बे.... तुम कह तो सही रहे हो लेकिन कितनी फ़ज़ीहत होईगी सोचे हो कभी.."।
"जोन होगा देखा जाएगा...."।
"चलो , अभी तो फिलहाल हम मिलने जाई रहे हैं उससे होली....। पहली बार भी तो है बे....अब नरवसियाओ मत हमको..... वर्ना सब गङबङा जाएगा..."।
जिय रजा कि ......,
साला.... ई.. होता है ....प्यार...।
एकदम्में.... से ...बेताब....., बेफिक्र..........., बेधड़क......और..बेइंतहा... बेइंतहा...।
घाट पर मिलने का wats app message था
पहले ही पहुँच गये दुबे जी ,,उनको आईसा लगा था....। लेकिन ई का... ई तो... पहले से ही हाज़िर थी.. उनकी मलकाईन....। सामने आते ही आहहहहहह.... हहहहह ..क्या एहसास था..... मानों खो गये थे दोनों एक दूसरे में...., आखियाँ चार होकर भी ना हो पा रहीं थी.......,,और बेताबी थी एक दूसरे को देखने की... होंठ कपंकपाते..... ,, मुँह से आवाज़ फूटने को तैयार ही नाही थे ...,, तभी शून्य हूए दुबे ने "आव देखा ना ताव" लगा दिया गुलाल.....भर मुँह... ,
और रंग दिया.. गुरु अल्हड़ बनारसी रंगों से... अपने प्रेम के रंग में... और बना दिया रंगों की रानी...महारानी...और अपनी दूबाईन...।
प्रतीत हो रहा था कि मानों कोई अप्सरा उतर आई हो स्वर्गलोक से इस तीर्थ नगरी में...,,होली खेलने...,, उसका मांसल - कोमल बदन ,उसपे गिरता हुआ शिफान का सफेद दुपट्टा, उसकी लंबी गुथी चोटी , तो कुछ बिखरे बाल , बच्चों सी मासूमियत और मेरे प्यार का रंग.....और उसपर मेरे अरमानों का गुलाल... उफ्फ.... समझ में ही नाहीं आ रहा था कि का हो रहा है ये.....सब..!!
किसी ने कहा कि शराब जाम है ,
किसी ने कहा शवाब जाम है ,
लेकिन हमने कहा,"इश्क से बङा तो
कोई जाम ही नाहीं है रजा
जो डूबो देती है दो आशिकों को
केवल एक ही नशेमन में...
हमेशा हमेशा के लिए "।
लग रहा था होली के सभी रंग खुश हो पड़े हो खिलखिला उठे हो रंगों की नाच शुरू गयी हो।
मन में आया कि भर दूंँ माँग भी इसी लगे और बना लूँ अपनी दूल्हिन लेकिन रोक लिया सोचा बहुत बवाल होई जायेगा जल्दीबाज़ी के चक्कर में...थोड़ा रुक जातें हैं।
तो चलिए भई पहिला होली तो बीत गवा.. दूसरे होली तक मानों बनारस के हर गली... हर मुहल्ले.... हर घाट... हर मंदिर... से इनके प्रेम की खुशबू आने लगी यहाँ का कण - कण मानों रंग गया हो इनके ही प्रेमरंगो में... कोई जगह अछूता ना रह गया था... इनके प्यार से.... चाहे मन का कोई कोना हो या फिर बनारस का..... ।
फिर से फगुआ आ गया अब का था दोनों का प्रेम वयस्क हो चला था प्यार के रंग गहरे हो चले थे....। गुंजाइश न थी दूर रह पाने की.....प्रगाड़ता तो माननी पड़ती।
बाबा विश्वनाथ मंदिर गये तो थे दर्शन के....लिये दूबे जी....होली के साझी को... झार के सफेद कुर्ता और पैजामा.. लेकिन ई का ना जाने भांग की ठंढई ने उनको हमेशा के लिए कैसे रंग दिया... पता ही नाहि चला ठंढई कुछ ज्यादा लड़ाई लिए थे। भोले बाबा के मंदिर में मदिरा संग माँग भर दिया और बना लिया दूल्हिनिया ...
अब क्या....?? घर गये... अम्मा बहुत बड़बड़ाई... चिल्लाई...लेकिन फिर तनिक गम्भीर अवस्था में ही सही सारी रश्म निभायीं। घर में आरती करके ले गयी दुलहिन को...। उधर बाबूजी सामान्य थे कुछ ना बोला ...आ आके भितर मुँह देखाई के पईसे दे गये । धीरे - धीरे सब ठीक होने के राह पर चल पड़ा था कुछ दिन उपरांत दूबे जी संस्कृत विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर बन गये जुगाड़ से ही सही लेकिन बन तो गये थे गुरू और उधर दूबाईन 2 लईकन की अम्मा।
दोनों हर त्योहार पर निकल जाते रहे उनही गलियों में... जहाँ इनके नवजात प्यार की खिलखिलाहट सुनाई देती उनको फिर से पहुँचा देती उन्ही दिनों में जहाँ उनके प्यार के फूल खिला करते थे ।
चलो अच्छा..... सब तो ठीक रहा......जहाँ दोनों का मोटापा एक दूसरे को टक्कर तो दे ही रहा था, वहीं दुबे जी अक्सर सफेद लूँगी में दिखाई देई जाते सुबह सबेरे अखबार वाचते बहस लङाते तो वहीं उनकी मालकाईन मैक्सी पहने सवेरे - सवेरे सब्जी वाले से मोल मोलाई करते दिख जाया करतीं यही था वर्तमान... दूबे औउर दूबाईन का ।
सब तो सब ठीक चल रहा था लेकिन ई नहीं समझ आया कि दोनों के दो बिटवा तो हुए , लेकिन ना जाने किसके में पड़ि गए.... सरवा एकदम करिया... करिया,,,,,, कोईला भी सरमा जाय इनके आगे , यहि मलाल रह जाता दुबे जी की अम्मा को कि " एगो त तितलौकि , ऊपर से चढ़ल नीम क पेड़ी पर "।
लेकिन बाबू जी ...ठहरे...विद्वान...बुद्धिमान.. पंडित.. ई कह सम्भाल लेवा करते कि चलअ
" घीव क लड्डू , टेढ़ो भला "।
तो यहि है रजा असली प्रेमरंग बनारस के....
बनारस बिन होली...रंग देती अपने ही रंग में
फिर इस दोनों के प्रेम के बीच तो बनारस भी था और होली भी
तो रंग गये दोनों यही के रंग में...
औउर हो लिए.. होली में...।
हमेशा हमेशा के लिए............!!!
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