औरत कैसे समेट लेती है ना ख़ुद को,
जब वो छिड़ पाती है दुर्बल तन को,
सारे किवाड़ बंद कर ताला लगा देती है,
चाहती नहीं किसी को क्षण भर भी दुखी करना,
सिमटी रहती है घर के किसी कोने में,
ना आते देख अपनी तरफ खेद भी नहीं करती कभी
शायद स्वयं को वह मन से क्षीण नहीं पाना चाहती कभी,
नहीं दुखाना चाहती मन खुद का खुद से,
धीरे धीरे करती है मजबूत एक संकल्प से,
ताकि मन कर सके एक वादा तन से,
क्योंकि आदत है ना हमेशा सब पर खुशी बरसाने की,
विश्वास नहीं कि उसके बिना भी चल सकती है जिन्दगी किसी की,
क्रमशः लड़खड़ाते हुए कदम उठ पड़ते हैं यही सोच सोच,
गिर भी जाती है खट से हार ना मानती है इन सबसे
फिर उठती है फिर गिरती है बार बार चोट भी खाती है,
आप से मरहम भी लगाती है।
लेकिन इस बार उठ खड़ी हो एक तेज़ दौड़ लगा लेती है
औऱ वो सफल हो जाती है।
दरअसल, खुद की क्षीणता,दर्द,कमजोरी को उसी कोने में रख तोप देती है
किसी भारी सील-लोढ़े से,
ताकि कभी आंधी का झोका या कोई तूफान भी ना उखाड़ पाये बिन चाहे इस कोने से,
क्योंकि ये दर्द अक्सर दखल देता है इसके जीवन को,
अन्ततः ऐसा ही चलता रहता है जीवनभर,
औऱ फिर एक दिन जीवन के किसी मोड़ पर,
खुद के हाथों ही टूट जाता है वो सील-लोढ़ा,
जिसके निचे उसने खुद को ही दबा रखा था,
एक सामान सा बटोर कर।
खतम हो गयी थी जिजीविषा
एक पल में सील से दबा अस्थित्व का अंत तो हो चुका था...और संग उसका भी।
फिर,सभी ने देखा उन मोटे मोटे किवाड़ों को,
उसपे लटके बड़े बड़े तालों को,
उन टूटे हुए सील को लोढ़े संग,
शिशे सा चूर-चूर हुए उस औरत के अंतर्मन को,
जिसने किसी को जानने तक ना दिया,
उस तैखाने मे लिपटी सी, किवाड़ों के अंदर बंद,
सील-लोढ़े के नीचे दबे उसके टूटे-फूटे अस्थित्व के बारे में,,
अतः इन्तजार नहीं करता समय किसी का,
फिर कैसे कर लेता इन्तजार किसी को समझने का,
फिर क्या था घर के चौखट,दरवाजे,बर्तन,कमरे,बिस्तर व हर चाय की प्याली से यहि आवाज़ आती ...
काश ..!.तुम होती तो...
काश..! तुम होती तो....
काश..! तुम्हें समझा होता तो...
अब तो बच्चे भी चल दिये अपनी दुनिया की तरफ औऱ तुमने भी मुंह मोड़ लिया मुझसे...
खैर..! गलती भी तो मेरी ही थी,लेकिन इसकी भी सज़ा तुमने खुद को क्यों दी पगली,,,
काश ..!! तुम होती तो..
-- विजय लक्ष्मी राय "सोनिया"
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