ये सन्नाटा दिल को चीरता है। सूनी गलियां आंखें भर जाती है।
जन मानस विहिन रास्ते दहशत की आहट दे ही रहे थे कि मैंने देखा
घर के सामने जाने वाली सड़क जो कभी गाड़ियों से पटी रहती थी।
काला धुआं जिससे मेरे बेटे की सांसों में कालिख भर रही थी।
वहां आज मोर नाच रहें है।
सड़क के पार खड़ा अमलतास जिसकी पत्तियां धूल से अटी थी
पिछले हफ्ते की बारिश के बाद चमचमा रही थी।
इस साल मेरे बेटे ने देखी उसके फूलों की सुनहरी आभा।
वो धुंधलका आस्मां जिनमें सिर्फ काले कौए नजर आते थे
या हवाई जहाजों का काफिला
आज तरह-तरह के पक्षियों से गुलजार हैं, उनको बात करते सुना है मैंने कि
मेरी बागियां में भी ढ़ूंढ़ रहें हैं आशियाना।
इस बार शायद वसंत थम गया है। कोकिल अम्बुआ के बौरों के झरने के बाद भी कूक रहें हैं।
शायद उन्हें भी अपनी दादी-नानी से सुनी कहानी याद आ रही है।
जब इंसान सच में इंसान थे।
जब प्रकृति में सबका हिस्सा था।
जब इंसानों ने अतिक्रमण नहीं किया था।
जब इंसान खुद को भगवान नहीं मानता था।
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