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यह लघुकथा हमारे समाज पर करारा व्यंग करती हैं। लोग अपने चेहरे पर मुखौटा लगाए रहते हैं पर कभी न कभी यह मुखौटा हट ही जाता है और विद्रुप सच्चाई सबके सामने आ जाती है।

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Soma Sur
Soma Sur 01 Feb, 2020 | 1 min read

मैसेज से इनबाक्स भरे पड़े थे।

"मैम आपके स्पीच को हम हमेशा फॉलो करते हैं। सच! आपके शब्द हमें प्रेरणा देते हैं।" चिरपरिचित मुद्रा में मुस्कुरा कर कुछ एक खास लोगों को रिप्लाई करके श्वेता जी ने अपने लैपटॉप को किनारे रखा ही था कि दरवाजे की घंटी बजती।

ओह! अभी तो किटी पार्टी की सहेलियां आने वाली थीं। उन्होंने गुड्डी को दरवाजा खोलने का आदेश देकर अपने मेकअप को रि-टच दिया।

"वाह! श्वेता तुमने तो कमाल कर दिया। आज तुम्हारी वजह से बीस बाल मजदूर उस फैक्ट्री से रिहा हो सकें।"

कल समाचार पत्रों में देखना तुम्हारी धूम रहेगी।

अभी बातें हो ही रही थी कि १२-१३ साल की एक बच्ची सबके लिए पानी लेकर आई।

सबकी प्रश्नवाचक दृष्टि श्वेता जी पर अटक गई।

"दरअसल! ये बच्ची बेहद गरीब परिवार से हैं। इसके माता-पिता के पास इसे खिलाने तक के पैसे नहीं थे। मैंने इसे अपने पास रख लिया। कुछ काम काज सीख जाएगी तो आगे अपने परिवार की मदद कर सकेगी।"

मेकअप की परतों तले भी उनका क्रूर चेहरा छिप न सका।

सोमा सुर

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