दूर रहना तू वो चँदा
मैंनें अपना चाँद देखा,
था बहुत बहका हुआ।
मिल गयी थी उसको कोई ,
चाँद था खोया हुआ।
थे महकते गात उसके ,
गीत था बजता हुआ।
नयन थे उसके चमकते,
राज फिर गहरा हुआ ।
मैंने पूछा चाँद मेरे ,
कुछ बताना क्या हुआ।
मुस्कुराता बादलों संग,
क्षण में वह ओझल हुआ।
बादलों तुम ही संभालो ,
चाँद तो रुखसत हुआ।
मेरे आँगन चाँद उतरे,
है भला यह कब हुआ।
हम चकोरों से न पूछो,
चाँद कब अपना हुआ।
बैठें रहता वह शिखर पर,
धरती का सपना हुआ।
फासले है दरमियां अब,
पूछना मत क्यों हुआ।
वो जो चलते है गगन में,
ख़्वाब कब अपना हुआ।
बेचता तू चाँद सपना,
खूबसूरत मन हुआ।
देख कर तेरी हकीकत,
जख्म- मन गहरा हुआ।
दूर रहना तू वो चँदा,
प्रेम तुमसे क्यों हुआ।
हम भले हैं झोपड़ी में,
यह भला अपना हुआ।
डॉ. स्नेहलता द्विवेदी 'आर्या'
कटिहार, बिहार।
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