आत्म कथा

आत्मानुभूति का सरस विवरण

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Snehlata Dwivedi
Snehlata Dwivedi 11 Apr, 2021 | 1 min read

मैं डॉ. स्नेहलता द्विवेदी 'आर्या' आप सभी को प्रणाम निवेदित करती हूँ।


मगध की तेजोमय तपोभूमि जहाँ से भारत के अध्यात्म , ज्ञान की गँगा का अवतरण होता है, जहाँ सनातनी प्रेतयोनि से मुक्त होते हैं, जहाँ विश्व शांति के अग्रदूतों को कैवल्य की प्राप्ति होती है, वैसी पुण्यभूमि के औरंगाबाद जिले के ओबरा गांव में आज के लगभग 47 वर्ष पूर्व एक ब्राह्मण परिवार में मेरा अवतरण हुआ। पिता अभी पढ़ रहे थे। ग्रामीण परिवेश में जब कुछ बड़ी हुई तो पिताजी बोकारो के सिटी महाविद्यालय में  प्रधानाचार्य के रूप में नियुक्त हुए और हम सभी का आसन बोकारो आया। उन दिनों नर्सरी प्रेप इत्यादि का आनंद नही हुआ करता था तो कंपनी के विद्यालय में मैं सीधे द्वितीय वर्ग में ठूँस दी गई। उस कक्षा में मैं सम्भवतः सबसे छोटी थी और ग्रामीण परिवेश में मुक्त पंडिताई (पंडित की बेटी के रूप में आशीर्वाद देती फिरती थी ) करते करते अब गुरु जी को गुड मॉर्निंग कहना सीख गई, पता नहीं चला।


पिता के भय से और आस पास के शैक्षणिक माहौल के कारण मेरी गँवई खोपड़ी क्रमशः परिष्कृत हुई और बचपन में संस्कार और पुस्तक जनित ज्ञान के बीज मन और मस्तिष्क में स्थापित हुए। इनके बलीभूत होने के समय , जब मैं आठवी कक्षा में थी, पिताजी का स्थस्नानरण प्रकृति की अद्भुत छटा वाले सिमडेगा में हो गया। व्यक्तित्व के विकास के स्वर्णिम वर्ष प्रकृति की इन वादियों में वहाँ के विद्यालय, महाविद्यालय में अंतरंग दोस्तों सहेलियों के साथ बिता। वस्तुतः अद्भुत जगह था शहर सिमडेगा, लोग भी सरल,सामान सस्ता , प्रकृति का राग, अनेकों दोस्त- सहेलियाँ..हँसता खिलखिलाता गुनगुनाता महकता और सहकता बचपन , कोमल किशोर मन । मन अपने उमंग के उफान पर, तन सहज उम्र के विकास पर, मस्तिष्क जागृत और विकास की ओर.. सब ओर आनंद ही आनंद ..सृजन, संस्कार, राग - प्रेम, ध्वनि, संगीत और न जाने कितने अनगिनत भावों का ज्वार भाटा! यह क्रम सिमडेगा में सिमडेगा महाविद्यालय, सिमडेगा तक चला, जब मैं अन्तर-स्नातक की छत्रा थी। महाविद्यालय में भी धौंस थी । पिताजी का पुनः स्थानांतरण पैतृक महाविद्यालय में हो गया और हम सब पाँच बहनें और दो भाई बोकारो आ गए। वैसे तबतक मेरी दो बड़ी बहनों की शादी हो गई थी।

इस बीच गुमला के शिक्षक ट्रेनिंग महाविद्यालय द्वारा शिक्षक प्रशिक्षण हेतु मेरा चयन हुआ और मैनें प्रशिक्षण पूरा किया। सुंदर वादियों में सखियों ; ममता, सुनीता, रेखा, पद्मा, पार्वती इत्यादि के साथ आना जाना पढ़ना कम बतियाना ज्यादा। वह सुरभित हृदय को झंकृत करता पथ जिस पथ पर अकारण आनंद में झूमते भौंरों की अवरागर्द आनंदित नजरें! हम एकदूसरे को अनायास ही छेड़तीं..प्रशिक्षण पूरा किया।


मुझसे बड़ी बहन की शादी हुई। हम सब बोकारो आ गए। मैं स्नातक में! दर्शनशास्त्र में प्रतिष्ठा! वैसे दर्शन ज्ञान औऱ पारम्परिक आध्यत्मिक जीवन दर्शन से दूर मुझ जैसी आनंद लेने वाली अल्हड़ और वैज्ञानिक सोचवाली लड़की के लिए यह विषय पूर्णतः अवांछित था। लेकिन अवांछित आक्सीडेंटल विषय से भी मैंनें ठीक प्रकार से स्नातक प्रतिष्ठा प्राप्त किया। लेकिन हुआ वही जो सामान्य लड़की के साथ होता है..शादी हो गई। उन्मुक्त शानदार जीवन का अंत ! दूल्हा निकला पड़ोसी!आप जैसा सोच रहे हैं वैसा ही सबों नें सोचा। मैं अफसोस करती रह गई काश! चिट्ठी पत्री का भी समय आया होता, पड़ोस में ताका झाँकी भी हुई होती, हाय री किस्मत ऐसा कुछ भी नही ..तिसपर दूल्हा विल्कुल विपरीत! मैं कहाँ आनंद की महामाया और उसे दुनियादारी प्रेम राग से दूर-दूर तक का रिश्ता ही नहीं। सोची आखिर धरती पर यही लड़का मिला मेरे पिताश्री को! वैसे मेरे पिता होशियार थे उन्होंने शादी से पहले मेरी रजामंदी ले ली थी , यह बात और है कि मुझे मना करने का न तो साहस था और न मेरी तरफ से ऐसा कोई विशेष कारण! अतः उन्हें दोष देने का कोई कारण या फायदा नहीं था। इधर मेरे महाशय स्नातकोत्तर में अंतिम वर्ष की परीक्षा दे रहे थे! 


परिणय पूर्व ही पारिवारिक संस्कार और माँ ने भी समझा दिया था कि यह घर मायके है और वह घर ही तुम्हारा है। मैं भी इतनी बड़ी हो गई थी कि दुनियादारी समझती थी। शादी सम्पन्न हुई और मैं दुल्हन के रूप में अपने मायके से विदा हुई। किकर्व्यविमूढ़ उहापोह में विछोह वियोग में तड़पती कुछ अच्छे विचारों और कुछ आशंकाओं के साथ पिया के साथ सजी हुई कार में अपने घर की ओर! यह क्या रास्ते में ही उन्होंने आँसू पोछते हुए खींच लिया कहा आखिर रोना क्यों? बगल में ही तो रहना है, जब मन करे भेंट मुलाकात होती रहेगी। रोना बंद कीजिये। 

मैं समझ गई कि जैसा सुन रखा था लगता है वैसे नहीं हैं हमारे महाशय !एक सुखद अहसास के साथ अपने घर में प्रवेश किया।


जीवन यात्रा चली आगे बढ़ी। मैनें राँची विश्वविद्यालय से दर्शनशास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त की। मेरे महाशय विश्वविद्यालय में व्यख्याता हुए । मुझे तीन वर्षों के अंतराल के साथ दो पुत्री रत्नों की प्राप्त हुईं। जीवन में वो सारे संघर्ष सामान्य रूप से आये जो किसी स्त्री की जीवन यात्रा में आते हैं। बच्चियों के लालन पालन और अच्छे और समझदार पति की सेवा में स्वयं को पहचान स्थापित नही हो पाई। तरुणाई से पूर्व से जिन कविताओं में मेरा मन लगता था , मुकेश के संगीत और प्रेमगीत की धुन का मखमली अहसास महसूस होता था वे सब नमक तेल की चक्की में गहनतम नेपथ्य में तिरोहित हो गए।बच्चे बड़े हुए। आयुषी, मेरी बड़ी बेटी चिकित्सक को शिक्षा (MBBS) और छोटी बेटी अनुष्का ओझा विधि शास्त्र (LLB) की पढ़ाई करने लगीं। वैसे मैं सरकारी विद्यालय में शिक्षण का कार्य करने लगी थी , यह कार्य मेरे दिल के करीब था। इसे मैं सर्वोत्तम कार्य मानती हूँ। इस क्रम में पहचान की अग्नि को पुनः प्रज्वलित कर दिया और फिर जागृत हुआ पुराना कवित्त प्रेम। अब कलम नें धीरे-धीरे अपना काम शुरू किया। इसमें डिजिटल माध्यम का अद्भुत योगदान रहा। सर्व प्रथम फेसबुक पर मैनें कुछ कवितायें पोस्ट की। पाठकों नें सराहा तो अंतर्मन उत्साहित हुआ। उसके बाद अंकुर परिवार से जुड़ी। दैनिक वर्तमान अंकुर में कवितायें छपने लगीं। पुनः तन्हा जी नें मेरी कविताओं पर एक लेख अपनी पत्रिका 'साया' में प्रकाशित किया जिसने संजीवनी का काम किया। यह सफर आगे बढ़ा और अनेकों पत्रिकाओं ,अखबारों में मैं छपने लगी। डिजिटल माध्यम के कई साहित्यिक मंचों यथा हिन्द देश, साहित्य संगम संस्थान, विश्व हिंदी रचनाकार मंच, कलम से इत्यादि से अनेकों सम्मान पाकर मेरी आत्मा में निश्चित रूप से संतोष का भाव बलीभूत हुआ, मेरी तृष्णा शांत हुई। अनेकों काव्य साझा संग्रह में मेरी कवितायें प्रकाशित हुईं। दो एकल काव्य संग्रह ' *काव्य आर्या'* और ' *प्रेमाश्रु '* प्रकाशित हो रहीं हैं। इस क्रम में कई पत्रिकाओं के संपादक मंडल और सलाहकार सदस्य के रूप में मैं सामिल हुई। सहित्य संगम संस्थान के बिहार इकाई के अध्यक्ष, हिन्ददेश की अंतर्राष्ट्रीय संरक्षक इत्यादि अनेक दायित्व का निर्वहन मैनें किया। कतिपय कवि मित्रों, कवयित्री बहनों और विविध प्रकाशकों का इस यात्रा में योगदान तो रहा ही सुधि पाठकों श्रोताओं के प्रेम नें मेरी इस यात्रा को मधुमय और आनंदित बनाया।

सत्य तो यह है कि साहित्य सृजन मेरे अंतर्मन को आनंदित करता है इसलिए निश्चित रूप से साहित्य के इस पथ पर सेवा और समर्पण भाव से मैं स्वयं स्वतः कार्य करती रहूँगी। यह विश्वाश है।

डॉ. स्नेहलता द्विवेदी 'आर्या'


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Snehlata Dwivedi

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