इतिहास गवाह है कि प्रकृति जब अपना रौद्र रूप दिखाती है, तब वह तबाही मचाते वक्त भेद नहीं करती कि सामने अमीर है या गरीब, शहरी या ग्रामीण। आपदाएं न विश्व में मानवों द्वारा बनाई गई सीमाएं देखती हैं, न धर्म, न ही सामाजिक दर्जा। वे सबको समान रूप से प्रभावित करती हैं।
लेकिन इस प्रकार के संकटों में एक उम्मीद की किरण जो मानवीय एकजुटता जगाती हैं (जो आमतौर पर नहीं देखने को मिलती पर हमारे हृदय के भीतर होती अवश्य है) कि हां , हम मिलकर इस आपदा का सामना कर ही लेंगे।
प्राकृतिक आपदाएं, आज भी विश्व के लिए सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक हैं। लेकिन जब इंसान अपने मतभेद भुलाकर दूसरों की मदद के लिए आगे आता है, तो यही संकट हमारे सामाजिक ताने-बाने को और भी मजबूत कर देते हैं।
उत्तराखंड की हालिया आपदा: एक ताजा उदाहरण
अगर सिर्फ भारत की ही बात करें तो 2025 में उत्तराखंड एक बार फिर से प्राकृतिक कहर की चपेट में आ गया। कई जिलों एवं गांवों में हुई भारी बारिश, बादल फटने और भूस्खलन की घटनाओं ने स्थानीय लोगों के जीवन को अस्त-व्यस्त करके रख दिया। कईयों के मकान बह गए, कुछ लोग लापता हैं और दर्जनों घायल हुए हैं। कई सड़कें ध्वस्त हो गईं, गांवों का संपर्क टूट गया, और बचाव दलों को हेलिकॉप्टर से राहत पहुँचानी पड़ी। नदियां उफान पर हैं, जिससे भारत के अन्य कई राज्यों में भी बाढ़ जैसी स्थिति बन गई है।
आज सोशल मीडिया के दौर में तबाही के ये मंज़र मानवता को झकझोर देने भर को काफी थे।
ये आपदाएं क्या प्रकृति की चेतावनी हैं या फिर हम इन्हें मानव की लापरवाही जनित भी कह सकते हैं?
आज के युग में जब प्राकृतिक आपदाओं की आवृत्ति और तीव्रता में वृद्धि देखी जा रही है तब विश्व भर के वैज्ञानिकों का मानना है कि जलवायु परिवर्तन, अनियंत्रित शहरीकरण और पर्यावरणीय असंतुलन इसकी प्रमुख वजहें हैं। अर्थात मानवीय भूलें, बहुत अधिक पहाड़ी जगहों पर विकास के नाम पर निर्माण कार्य तथा काफी सारे अन्य कारक भी इनके लिए जिम्मेदार हैं।हर साल दुनिया के किसी न किसी हिस्से में भूकंप, बाढ़, तूफान, सूखा या भूस्खलन जैसी घटनाएं जान-माल का बड़ा नुकसान करती हैं। पर सिर्फ सरकारी तंत्र को कोसने से यह सब कम नहीं होने वाला, आखिर में जनता को स्वयं भी जागरूक व जिम्मेदार बनना होगा।
आपदाएं: न पहचान देखती हैं, न कुछ और वो सिर्फ तबाही लाती हैं
उत्तराखंड की त्रासदी हो, या विश्व भर में में कई जगहों पर आए तूफान —भूकंप इत्यादि , ये आपदाएं कभी यह नहीं पूछतीं कि कौन किस जगह या वर्ग से है। जब नदियाँ उफान पर होती हैं या जब ज़मीन फटती है, तो उसमें सब कुछ बह जाता है — पहचानें, स्थिति, भेदभाव... सब कुछ….
2004 की सुनामी ने भारत से लेकर इंडोनेशिया तक लाखों लोगों को लील लिया — वहाँ कोई पहचान नहीं बची थी, केवल दुख-दर्द और पीड़ा थी।
2020 की कोविड-19 महामारी ने अमीर-गरीब, शहरी-ग्रामीण सभी को वैश्विक स्तर पर एक समान रूप से डराया और तोड़ा।
इन घटनाओं से यह स्पष्ट है कि आपदाएं कभी भेदभाव नहीं करतीं।इनकी मार हर तबके पर पड़ती है। चाहे वह उच्चवर्गीय व्यवसायी हो या झुग्गी में रहने वाला मजदूर, जब जल अपनी सीमाएं तोड़ता है या एक वायरस लाखों लोगों की साँसें रोक देता है, तब सब एक जैसे कष्ट में होते हैं और एक जैसे ही इनसे बचने के उपाय एक साथ मिलकर ढ़ूंढ़ने की कोशिश करते हैं।
संकट में उपजती मानवीय संवेदनाएं अनमोल हैं क्योंकि दुख से जुड़े लोग जुड़ने की सोचते हैं।
हम सभी साक्षी हैं कि हर आपदा के बाद लोगों में उपजती करुणा और सहयोग की भावनाएं जरूर सामने आती हैं। उत्तराखंड में ही जब आपदा आई, तब राहत कार्यों में सिर्फ सरकार ही नहीं, स्थानीय लोग, स्वयंसेवी संस्थाएं, धार्मिक संस्थाएं और युवा भी कंधे से कंधा मिलाकर लगे रहे।
केरल की 2018 की बाढ़ में जब पूरा राज्य पानी में डूब गया था, तब पूरे भारत से लोग मदद के लिए आगे आए। गुरुद्वारों ने लंगर भेजा,, और हिंदू स्वयंसेवकों ने मस्जिदों में जाकर राहत सामग्री बांटी।
कोविड-19 महामारी के दौरान जब अस्पतालों में ऑक्सीजन की कमी हो गई, तो युवाओं ने सोशल मीडिया पर ‘ऑक्सीजन लंगर’, ‘मुफ्त एंबुलेंस सेवा’, ‘भोजन सेवा’ जैसे अभियानों को शुरू किया। गांव-गांव के युवाओं ने अपने यहां के स्कूलों को राहत शिविरों में बदला। और यह सब सिर्फ भारत मे ही नहीं बल्कि वैश्विक स्तर पर हुआ।
शायद इसी को कहते हैं “संवेदना की ताकत”, जो हर आपदा में मानव को मानव से जोड़ती है।
तकनीक और जनसहयोग की बढ़ती भूमिका
अब जब हम डिजिटल युग में हैं, जहां सूचना हमारी उंगलियों एक छूने भर से मिल जाती हैं, मोबाइल में दुनिया सिमट गई है तब इस तकनीक ने भी मानवता के इस सहयोग और संवेदनशील मिशन को और अधिक प्रभावी बनाया है। सोशल मीडिया और क्राउडफंडिंग प्लेटफ़ॉर्म्स आपदा राहत एवं प्रबंधन में अहम भूमिका निभा रहे हैं। अब मानवता की आवाज़ न केवल मैदानों और गाँवों में, बल्कि ऑनलाइन भी गूंजती है।
क्या हमारी तैयारियाँ अब भी अधूरी हैं
हर बार आपदा के बाद हम यही सोचते हैं — “ इस तबाही को क्यों नहीं रोका जा सका?”, “क्या ये पहले से पता नहीं था?”, “सरकार क्या कर रही थी?” “उत्तराखंड जैसे संवेदनशील क्षेत्र में तो आपदा पूर्व तैयारियाँ और भी मजबूत होनी चाहिए थीं?” लेकिन क्या हमने स्वयं कोई तैयारी की? क्या जनता की कोई भागीदारी नहीं होती, कोई जिम्मेदारी नहीं होती है? सब कुछ सरकारी तंत्र के भरोसे छोड़कर बैठ जाना क्या गैरजिम्मेदाराना नहीं है? सरकार को कोसना आसान है पर अपने स्वयं के जीवन को बचाने के लिए आपने क्या किया,रह कौन देखेगा?
भू-सर्वेक्षण के आधार पर निर्माण कार्यों पर नियंत्रण किया?
हर आपदा यही चेतावनी देकर जाती है कि प्रकृति जब क्रुद्ध होती है तब हमारे हाथ में कुछ नहीं रह जाता है, पर नहीं, हम सबक नहीं सीखते बल्कि हमारी लापरवाही तो बढ़ी ही है।
संवेदना ही सबसे बड़ी नेमत है
आपदाएं यह सिखाती हैं कि अंतिम समय में हमारी पहचान हमारे कर्म होते हैं। जब भयंकर परेशानी में पड़े व्यक्ति के लिए कोई अजनबी अपने घर का दरवाज़ा खोलकर मदद करता है, या जब डॉक्टरों ने बिना आराम किए, अपने सुख-दुख भुलाकर दिन-रात मरीजों का इलाज किया था, और जब लोग अपनी जमापूंजी राहत कोष में दान देते हैं — तो ये इंसानियत की सबसे सुंदर तस्वीरें उकेरती हैं जो पीढ़ियों तक के लिए मिसाल की तरह बनी रहेंगी।
हमारी एकजुटता ही अकस्मात आपदाओं का उत्तर हैं।
“आपदाएं भेदभाव नहीं करतीं, पर मानव एकजुट जरूर हो जाते हैं” — यह केवल एक विचार नहीं, बल्कि हमारे समय की सबसे ज़रूरी सीख है।
हम अब प्रकृति की और अनदेखी नहीं कर सकते। हमें प्रकृति के साथ संतुलन बनाना होगा, समाज में सहयोग और संवेदना को बढ़ावा देना होगा, और ऐसी नीतियाँ अपनानी होंगी जो भविष्य में आपदाओं को रोकें या उनका प्रभाव तो कम अवश्य कर सके। और इसके केवल राहत कार्य ही नहीं, बल्कि आपदा पूर्व तैयारी (Disaster Preparedness) और सक्षम आपदा प्रबंधन तंत्र की आवश्यकता है।
तकि अगली बार कोई आपदा आए — चाहे वह भूकंप हो, बाढ़ हो या महामारी — हम फिर यह साबित करें कि इंसानियत अब भी ज़िंदा है। और साथ ही तैयार भी रहें।
स्मिता सक्सेना
बैंगलुरू
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