इस साल फिर से काफी सारे दोस्तों और रिश्तेदारों के विदेश जाकर बसने के फैसले ने एक बार फिर सोचने पर मजबूर कर दिया कि आखिर विदेश में जाकर हमेशा के लिए बस जाने का लोभ संवरण हम भारतीय क्यों नहीं कर पाते? क्या वहां के उच्च वेतन, साफ सफाई, नियमों को मानने की बाध्यता हमें खींचते हैं पर फिर इन्हीं सबका हम अपने देश में पालन क्यों नहीं कर पाते? आखिर ये दोहरी मानसिकता क्यों है? इसके दरअसल काफी सारे कारण हैं जो अधिकतर भारतीयों को प्रेरित करते हैं और फिर वहां जाकर बसने और कुछ वर्षों तक वहीं रहने के पश्चात वो लोग वापस आना ही नहीं चाहते हैं।
भारतीय प्रवासियों की संख्या में निरंतर वृद्धि हो रही है हालांकि कोरोना काल में काफी लोग भारत वापस आए पर वो एक अस्थाई और अस्थिर दौर था और यही लोग वापस लौटना शुरू हो गये हैं।
विदेश प्रवास के लिए जिम्मेदार कारकों में सामाजिक कारक जैसे कि कम वेतन एवं लचर नियम कानून व्यवस्था आते हैं जबकि विदेशों में आकर्षक वेतन, सुरक्षा एवं नियमों की पालना, बेहतर बुनियादी ढांचा इत्यादि आकर्षण के प्रमुख कारक हैं।
आर्थिक आधार , अत्यधिक जनसंख्या एवं भ्रष्टाचार आदि अन्य कारक हैं जिनकी वजह से भी घबराकर लोग विदेश प्रवास को मजबूर हो जाते हैं।
और हम सबने विदेश जाकर बसने के सपने के आकर्षण को अपने आसपास के काफी सारे लोगों में देखा है जो कि कुछ भी करके विदेश जाना चाहते हैं वो भी हमेशा के लिए बसने के लिए।
अप्रवासियों की यह खेप अपने सपनों को पूरा करने एवं विदेशी जीवन जीने और वहां की संस्कृति में समायोजित होने की भरपूर कोशिश करती है भले ही उसके लिए भारतीयता को पूरी तरह छोड़ना पड़े उससे भी ये गुरेज नहीं करते। संयुक्त अरब अमीरात के साथ ही अमेरिका एवं यूनाइटेड किंगडम भारतीयों के लिए सबसे पसंदीदा स्थल रहे हैं। आई टी क्रांति के बाद से ही अमेरिका जैसे देश में रोजगार के अपार अवसर उत्पन्न हुए जहां भारतीय डिग्री प्राप्त युवाओं की भारी मांग रही और फलस्वरूप भारतीय वहां प्रवास कर गए और अधिकतर कभी वापस लौटकर नहीं आए। उनका मानना यही है कि एक बार वो लोग वहां पहुंच गये तो फिर उनका और उनके परिवार का जीवन सुरक्षित हो जाता है। सिर्फ पढ़ाई तक के लिए विदेश जाने वाले 99 फीसदी छात्र-छात्राएं तक भी वापस भारत नहीं आना चाहते। साथ ही वो मानते हैं कि जब वो विदेश में नौकरी करते हैं तो उनको परिवार के साथ पर्याप्त समय मिलता है। ऐसे युवाओं का यही कहना है कि भारत में नौकरी की संस्कृति फिलहाल तक भी उतनी अच्छी नहीं है और यहां तक पर कर्मचारियों के पारिवारिक जीवन को बिल्कुल महत्व नहीं दिया जाता है। कंपनियां भी कर्मचारियों को अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा कार्यालयों में बिताने को मजबूर करती हैं और इस वजह से कर्मचारियों का स्वास्थ्य तो प्रभावित होता ही है साथ ही उनकी निजी जिंदगी भी प्रभावित होती है।
और अगर विदेशी कंपनियों में उच्च वेतन के साथ वो परिवार के साथ समय बिता सकते हैं और अपने स्वास्थ्य का भी ध्यान रख सकते हैं तो इतनी अच्छी संभावनाओं वाले अवसर वो क्यों ठुकराएं?
फिर भी ऐसा नहीं कहा जा सकता और ना ही यह पूरी तरह से सच है कि भारत में अवसर हैं ही नहीं । बस हमें अपनी अगली प्रतिभाशाली युवा पीढ़ी को समझाइश देनी होगी कि अपना देश अपना ही होता है और अपनों का साथ किसी खजाने से कम नहीं और अभी कोविड-19 के समय में हम सबने अपनों का महत्व जान ही लिया है। प्रवास सिर्फ अवसरों की कमी से ही नहीं होता बल्कि ये एक पीढ़ी की ज़िद भी रही है जो विदेशी जीवन की चमक दमक से प्रभावित रही पर असलियत में अमेरिका या यूके जाने वाले सभी प्रवासी अमीर ही नहीं बन गये हैं बल्कि वहां भी लोग एक कमरे के छोटे से हिस्से में रहते हैं और यहां आकर अपने उन्नत जीवन की झूठी कहानी सुनाकर दूसरों को भी झूठ के दलदल में फंसने को तैयार करते हैं तो ये सोचना कि विदेश प्रवास हमेशा उच्च जीवन शैली की गारंटी देता है उतना ही झूठ है जितना कि ये बात कि हर विदेशी रईस ही होता है।
कुछ संदर्भ में यह सच भी हो सकता है और फिर जाने वाले को कौन रोक सकता है? और उनको तो कोई नहीं रोक सकता जिनके मन में ही बचपन से यह भरा गया हो कि तुमको बड़े होकर विदेश जाना है जहां ऐसा बीज बोया जाएगा वहां तो प्रवास होना निश्चित ही है।
हालांकि विदेश प्रवास बिल्कुल ग़लत भी नहीं है और व्यक्ति के अच्छा अवसर तलाशने और दूसरी जगह जाने पर पाबंदी नहीं होनी चाहिए पर फिर भी केवल चमक दमक से प्रभावित होकर विदेश जाना वो भी अपने देश और परिवार को छोड़कर तथा हमेशा के लिए वहीं रह जाना शायद सही तो नहीं है।
स्मिता सक्सेना
बैंगलौर
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