अब हदें तोड़ने का जी करता है, मन की घुटन से बाहर निकल, दूसरों के बताए नहीं, ख़ुद के लिए, नये रास्ते ढूँढने का मन करता है।
हाँ, मैं माँ हूँ, कहानियों में, कविताओं में तो मान बहुत पाती हूँ, देवी स्वरूपा ममता की मूरत कहलाती हूँ, पर असली दुनिया में बस यही सबसे सुनती हूँ, जन्म दिया बच्चे को और झेला दर्द तो क्या ख़ास किया। बच्चे को जो तुम पाल रही हो इसमें क्या विशेष किया, ये तो सब करते ही हैं तुम क्या अलग इसमें करती हो। ये तो धर्म है तुम्हारा फिर इन सबका क्यों जब-तब बख़ान करती हो सब पूछते हैं, और इन सवालों की बौछार से दिल छलनी करते रहते हैं, यहाँ तक कि एक दिन वो बच्चे भी पूछ लेते हैं, जिन्हें अपने गर्भ में रख नौ महीने अपने रक्त से सींचा, दर्द लेकर जन्म दिया, कि क्या किया है तुमने हमारे लिए इतना तो सब लोग करते हैं। फिर औरत ने भी कहाँ औरत को समझा है, बख्शा है, कभी ताने देकर तो देकर कभी रिश्तों का वास्ता, औरत ने औरत को दबाने का मौका कहाँ गँवाया है, औरत हो तुम, त्याग की मूरत, ममतामयी हो तुम, चुप्पी बनाए रखना ही मर्यादाओं को बनाए रखता है समाज के संस्कार, रिवाज़ तुमको ही बनाए रखने हैं। अपनी तकलीफ़ ना कहना किसी से भी तुम, किताबों, किस्सों में देवी बनी रहना तुम, इंसान नहीं, देवी का रूप धरे रहना तुम, भावनाओं को, पीड़ा को ना छलकने देना तुम, यही सब स्त्री को घुट्टी में घोलकर पिलाया है, कि चलता रहे इस समाज का बस यूँ ही कारोबार, कि कहीं खड़ी ना हो जाए स्त्री अपने हक़ के लिए। हाँ, माँ है वो, और व़ो भी तो सदियों से निर्विरोध बस यूँ ही ना जाने क्यों, इसी महानता को साबित करने की कोशिश करती चली आई। औरत खुद का वजूद मिटाकर आडंबर का चोला ओढ़े, इंसान और एक स्त्री होने का हक़ छोड़ केवल माँ कहलाई इस बात पर हमेशा वो इतराई, हर्षाई सोचे बिना कि उसका भी अलग वजूद है, खुद को भुलाकर यूँ ही एक परंपरा सी निभाती आई, पीढ़ी दर पीढ़ी बस यही सीखती और सिखाती चली आई। फिर भी बच्चे पिता के ही कहलाते हैं अच्छे हुए तो पिता का गौरव बन जाते हैं, वरना तो लोग माँ की परवरिश पर उंगलियाँ ही उठाते हैं। चल रहा है सदियों से और शायद हमेशा चलता ही रहता, गर कहीं दिल से जो एक टीस दस्तक ना देती सी लगती, कुछ रिश्ते, कुछ बातें काँच जैसी चुभने ना लगती, बढ़ने लगी हैं अब चुनौतियां और भी या पता नहीं मैं ही हूं ढलने सी लगी, या बर्दाश्त की हद पार होने लगी है। बहुत से लोग अब भी समझेंगे नहीं, पर मेरा यकीन मानो अब हदें तोड़ने का जी करता है, मुझे भी मन की घुटन से बाहर निकलने का मन करता है, दूसरों के बताए नहीं ख़ुद के लिए नये रास्ते ढ़ूँढ़ने का मन करता है, नहीं ऐसा नहीं कि प्यार नहीं है मुझे बच्चे से, परिवार से, पर अब इन सबके साथ मुझे खुद से भी प्यार करना है मेरी भी बात हो और एक पहचान मेरी सच में हो, केवल त्याग नहीं, मेरी भी उपलब्धियों की बात हो, जब करके जी-तोड़ मेहनत, कमाऊं जब नाम और अस्तित्व ना कोई तोड़े हौंसला शब्दों से 'ये सब करते हैं’, ये कहकर मेरे किए को यूँ मिट्टी में ना मिलाओ मन मर जाता है मेरा ये सुनकर फिर मशीन बन जाती हूँ सब कुछ करती हूँ पर, मेरा खुद का दिल तो टूट सा जाता है ना, जो बता भी नहीं पाती मैं हर दर्द बर्दाश्त कर सकती हूँ अस्तित्व खो देने का दर्द बर्दाश्त अब मुझसे नहीं होता, अब पन्नों में, शब्दों में लिखकर नहीं मुझे सच में सम्मान की और इंसान समझे जाने की दरकार है बस इतना ही है कहना ना कर सको गर कुछ मेरे लिए तुम, तो जड़ें भी मेरी ना काटो फिर तुम कर के पैदा बाधाएं राह ना रोको तुम, ना दो साथ कोई बात नहीं समर्थ हूँ मैं और जानती हूँ कि, करना ही होगा मुझे ख़ुद ही सब बस, तुम मेरी उम्मीद का आसमान ना छीनो हाँ, मैं माँ भी हूँ और स्त्री का पूरा एक अस्तित्व भी अब इसको तुम स्वीकारो।
स्वरचित
स्मिता सक्सेना
बैंगलौर
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