दसवीं किस्त
लॉकडाउन ने हमारे दिलो-दिमाग पर कुछ ऐसा असर किया है कि हर चीज हमें बाहर बुलाती सी लगती है। बंद दरवाजा भी लगता है कि कोई खटखटा रहा है और खोलकर देखो तो कोई भी नहीं होता। बालकनी से झांको तो सूनी सड़क मनुहार करती है कि कब आओगी बाहर। आज सब़्जी खत्म होने पर अपार्टमेंट से नीचे उतरी तो धूल से सनी कार बेचारी मानों कह रही थी मालकिन कब दरवाजा खोलकर बैठोगी भीतर कहीं चलने के लिए। अगर ना भी चलो तो कम से कम मेरी हालत पर तो रहम खाओ ये धूल की परतें तो जरा हटाओ। अब ऐसे माहौल में केवल इकलौते फोन का ही सहारा है ये फेसबुक, इंस्टाग्राम, ट्विटर और वाट्स एप ना होता तो ना जाने मेरा क्या होता। ये लिखने का शौक अब जरूरत बन गया है और समय काटने और समय के सदुपयोग का बढ़िया साधन भी। ऊपर से इन सब यानि कि फेसबुक , ट्विटर से ये भी पता चलता है कि हमारी तरह ही कितने सारे लोग हैं जो लॉकडाउन का ईमानदारी से पालन कर रहे हैं और कितने ऐसे भी लोग हैं जो कोरोनावायरस को फ़ैलाने के जिम्मेदार हैं और देश के बनाए किसी नियम कानून को मानने की जगह उसकी धज्जियां उड़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ते। भले ही कितनी भी और बीमारी बढ़ जाए या लोग भरें इन्हे बाहर निकलना ,घूमना ही है।
पर ये लॉकडाउन हमारी भलाई के लिए ही किया गया है इसका पालन हमें किसी और के लिए नहीं बल्कि अपने खुद के ही लिए करना ही होगा। सरकार अपनी ओर से काफी कुछ कर रही है पर हम सबका भी फर्ज बनता है कि अपने कर्त्तव्य को निभाएं।
तो चाहे दरवाजा बुलाए या फिर आपकी गाड़ी बाहर निकलने की भूल बिल्कुल भी नही करनी है। लॉकडाउन खत्म होगा और अच्छे दिन अवश्य आएंगे विश्वास रखें।
स्मिता सक्सेना
बैंगलौर
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