शीशे में कैद सी देखो एक तस्वीर है!
क्यों गुमसुम सी उससे, उसकी ही तकदीर है?
जकड़न है क्या ये ज़ंजीर की?
या उलझे से कुछ रिश्तों की ताबीर है?
कभी इसमें घुली, कभी उसमे मिली
शक्कर की जैसी इसकी भी तासीर है।
छटपटाती है पाने को ये बहुत कुछ,
ना समझो कि ये बस एक शरीर है।
इक सच्चा प्यार, कुछ सच्चे रिश्ते,
बस यही तो इसकी सबसे बड़ी जागीर है।
कैद अगर जज़्बातों की हो तो मत खोलो इसे,
बस बंधन सपनों पर ना हो, उसी के लिए ये अधीर है।
"हां उड़ना है इसे, तो क्यों परेशानी है?
दे दो बस मुट्ठी भर आसमां,
क्या उसपर भी सिर्फ तुम्हारी ही जागीर है?”
देखो बदल रहा है वक़्त, हवा का रुख भी है बदला,
फैसले नए लेने को अब ये भी गंभीर है।
तन और धन बेमानी हैं इसके लिए,
शौक इसके बड़े हैं क्यूंकि, ये मन की फकीर है।
©®
मौलिक एवं स्वरचित
शुभा पाठक
Comments
Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓
No comments yet.
Be the first to express what you feel 🥰.
Please Login or Create a free account to comment.