"यार आज बड़ी देर हो गयी, ये अभी तक सो रही है?"
"देख ना तबियत तो ठीक है?" दीवारों ने बिस्तर पर तकिये से कहा।
"हां भाई ठीक है...थक गई होगी...आँखे भी थोड़ी भीगी थी.…फिर से आंख लग गयी होगी। या मन ना होगा उठने का। अक्सर छुट्टी के दिन ये ऐसा ही करती है। जागने के बाद भी उठती नहीं। आलसी बन पड़ी रहती है। "
"सही भी है यारा! क्यों बेचारी पर गुस्सा कर रहा है? तू ही बता दिन में कितने घंटे तुझे कष्ट देती है।" दीवारों ने कहा।
"कभी बच्चे, कभी बड़े, घर का हर एक कोना, गैस चूल्हा, बर्तन , झाड़ू सभी को तो उसकी दरकार होती है। उसके लिए तो तू ही एक सहारा है। तू उसको है भी बड़ा प्यारा, किसी से भी तुझे बांटती नहीं।"
"हाँ भाई बात तो तेरी सच्ची है, फिर उसकी एक छोटी बच्ची भी तो है...रात में कई बार उठाती है... आधी रात को भी घर में दौड़ाती है।" तकिया बोला।
"हम्म्म्म...देखा है हमनें.…यार लोरी भी खूब सुनाती है, उसकी कहानियां मन को भाती हैं।" दीवारें मुस्कुराई।
"सुनों आंखे खोल ली हैं, पर कोई हरकत नहीं, शायद और सोना है...या उसे स्वयं में ही खोना है।" तकिया आहिस्ता से बोला।
"यारा पड़ी रहने दे... जो एक बार उठी तो खड़ी रहेगी..या पैरों से चकरी बांध घूमती रहेगी। फिर बाहर चली गयी तो कोई ठिकाना नहीं।" दीवारें फुसफुसाई।
"सही कहा तुमनें..." "अरे यह क्या ये तो उठ गई..." "कुछ काम होगा शायद..." तकिया बोला।
"अरे मूर्ख... उसे तो उठना ही होगा... नहीं तो हम दीवारों को कौन जगायेगा? और इस घर को जीवित कौन बनायेगा? बर्तन खनकेंगे, कुकर की सीटी बजेगी, और बच्चे चेहकेंगे, और पूरे घर में बस इसी की कर्कश आवाज़ गूंजेगी।"
"अरे माफ करना...हमें तो उसकी आवाज़ मधुर ही लगती है। वो हमारी सच्ची साथी जो है। और हम उसके।"
तभी तकिया बोला, " यार जूड़ा बंध गया। पानी भी पी लिया...अब हमारी पारी ख़त्म... अब झाड़ू की बारी है..."
दीवारें खिलखिला उठती हैं और घर फिर से सन्नाटे से मुक्त हो गया।
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