स्कूटर से पैसठ वर्ष के बुजुर्ग उतर कर ज़ोर ज़ोर से पुकार लगाते हैं, " सेठानी, सेठानी सुनती हो, कहाँ हो? कबसे आवाज़ लगा रहा हूं। अरे भाई। कहाँ हो? "
वहां दूसरी और एक पचपन छप्पन वर्ष की महिला मन ही मन गुरगुराते हुए नीचे की ओर आती हुई गुस्से में कहती है, " क्या है कहीं आग लग गयी क्या? पागलों जैसे चिल्ला रहे हो।"
"सेठानी, देख मैं क्या लाया हूं। आम। बच्चों के लिए रख दे और मुझे आम का रस बना दे।"
" अरे बाबा जी!! मैं क्या 10 साल की बच्ची हूं जो इन नासमिटे आमों के लिए मुझे बुलवा दिया। तीन तीन बहुएं हैं छोटे छोटे बच्चे हैं उन्हें आवाज़ क्यूं नहीं लगाते।" तुनक कर झोला खींच लेती हैं बाबा के हाथ से।
रसोई में जाकर आम का रस बनाने लगती हैं। वहां दूसरी और बहुए हंस के बात करती हैं, " रोज़ का नाटक है, पहले बाबा से बहस करतीं हैं फिर छप्पन भोग भी तैयार करेंगी।" हंसी की आवाज़ रसोई में गूंज जाती है।
"क्या हो रहा है तुम लोगो को?? क्यों ठहाके लगा रही हो??" अम्मा जी ने कहा।
सारी बहुए शांत हो गईं और पल्लू दबाकर हँसने लगी। तभी बाहर से फिर बाबा के पुकारने की आवाज़ आती है, "सेठानी थाली परोस दो... बहुत भूख लग रही है।"
अम्मा जी फिर गुरगुराती हैं, " दिन भर सेठानी सेठानी सुनकर मेरे कान पक गए। काहे की सेठानी? नोकरानी बना रखा है... इस बुढऊ की वजह से बहुए होते हुए भी गृहस्थी के चूल्हे में रोज़ खुद को झोंकना पड़ता है।" बोलते बोलते बाबा की थाली परोस देती हैं।
"क्या सेठानी चटनी नहीं बनाई।"
बाबा की ये सुनकर अम्माजी तमतमा जाती हैं।
"ला रही हूं।" गुस्से में यह कहकर रसोई में चली जाती हैं।
भोजन के बाद बाबा के सोने का वक़्त और पूरा घर शांत। क्योंकि सेठानी जी का निर्देश रहता है कि बाबा को परेशान न किया जाए। सुबह से शाम तक सेठानी जी का हर काम बाबा के लिए हुआ करता और बाबा की ज़ुबान पर सेठानी जी का नाम। दिन भर नोंक झोंक से भरा रहता। पर उनकी इस नोंक झोंक के पीछे कोई भी उनके प्रेम को पढ़ सकता था।
इतने बड़े परिवार को बहुत कुशलता से बढ़ाया और चलाया इस अनपढ़ युगल ने। समय के साथ साथ दोनों बड़े और बूढ़े हो गए। इसी तरह समय बीत रहा था। फिर एक रोज़ बाबा बहुत बीमार हो गए, " सेठानी रघु को बुला दे बाज़ार जाऊंगा उसके साथ।"
"बाबा तुम्हें सब्र नहीं है । क्या करोगे जाकर?"
"बुला तो दे मैं ठीक हूँ। फिर गाड़ी पर बैठकर ही तो जाना है।"
"ठीक है..." "रघु बेटा आना ज़रा बाबा को लेकर बाज़ार हो आ।"
रघु, " आ रहा हूं अम्मा।"
रघु और बाबा एक घंटे बाद ही बहुत सारे सामान के साथ लौट आते हैं।
"सेठानी ले ज़रा पहन के दिखा।" झोला थमाते हुए बाबा कहते हैं।
"क्या सठिया गए बाबा बच्चों के पहनने ओढ़ने के दिन है तुम मेरे लिए ये सब क्यों ले आये।"
रघु मुस्कुराते हुए कहता है, " अम्मा पहन लो ना बाबा कितने चाव से लाये हैं।"
"ठीक है आती हूं।"
तब तक बहुए भी जमा हो जाती हैं बैठक में बेटों के साथ। शर्माते हुए पर ऊपर से गुस्सा दिखाते है अम्मा आकर कहती हैं, " देख लो मुझे, सोलह साल की बन गयी मैं।" सब ठहाके लगाते हैं।
"वो तो तू है ही, अब ऐसे ही थोड़े तुझे बिहा के लाया था। पूरे कुटुम्ब में कोई तेरे जैसा नहीं।" बाबा गर्व से फुले नहीं समाते मानो 30 साल जवान हो गए हों।
बहुए फिर तंज करती हैं, " हां, अम्मा जी हमारी कहाँ ऐसी किस्मत!!"
" हां हां तुम लोगों को तो काँटे मिलते हैं ना। चलो अब जाओ बाबा आराम करेंगे।" मन ही मन अम्मा जानती थीं कि बाबा अंदर से बहुत थक गए हैं और बीमार भी हैं।
रात को बाबा अम्मा जी से कहते हैं, " सेठानी, अब मुझसे ये पीड़ा नहीं सही जाती। मुझे अब जाने की आज्ञा दे दे।"
"क्यों बाबा मेरे बनाये भोजन से मन भर गया या मैं बूढ़ी हो गयी जो अप्सराओं के पास जाना है।"
बाबा मुस्कुराते हैं, " क्या तुझसे मेरी पीड़ा देखी जाती है??"
" ठीक है बाबा चले जाओ...वैसे भी तुमने कब मेरी मानी है।" अम्माजी मुँह फेर लेती हैं।
बाबा उन्हें अपने पास बुलाते हैं, और दर्द के अंतिम क्षण में उनका हाथ थाम के सो जाते हैं। हमेशा के लिए....
सुबह रघु पुकारता है, "अम्मा !! अभी तक नहीं उठी। बाबा को डॉक्टर के पास ले जाना है।"
अम्मा पूरी हिम्मत के साथ कहती हैं, "बेटा अपने पापा को बुला ला...बाबा चले गए।"
और मन ही मन कहती है, "सेठानी भी चली गयी।"
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