घर के आँगन में बड़ी चहल-पहल थी। सभी के मुख उल्लास स्वतः झलक रहा था। क्यों ना हो? विवाह पश्चात बिटिया पहली बार मायके आ रही है।
“अरे, सब हँसी ठिठोली ही करती रहोगी या बिटिया के स्वागत में कुछ गाओगी भी।“ दादी माँ ने तुनक कर कहा।
“ क्या अम्मा जी, गा तो लिए। अब क्या गले की बली चढ़ा दें।" किसी ने चिढ़ कर कहा।
तभी गाड़ी के हॉर्न की आवाज से सब दरवाजे की तरफ टकटकी लगा कर देखने लगते हैं। और माँ हाथ में आरती की थाल लिए दरवाजे पर पहुंच जाती है। कार में से नई नवेली सजी संवरी बिटिया रानी उतरती है। साथ में भाई और बिटिया का ढेर सारा सामान भी। माँ जल्दी से आरती के साथ साथ नज़र भी उतारती है। घर के भीतर प्रवेश करते ही वह सारी महिलाओं का अभिवादन करते हुए अपने कमरे की ओर चल देती है। तभी एक महिला जो कि बुआ जी हैं कहती है, “ अम्मा रामी के चेहरे पर तो निखार आ गया। क्यूँ न हो, इतना अच्छा वर और घर जो मिला है।" बुआजी की बात काटते हुए चाची जी कुछ उदासीन हो कहती है, "जिज्जी अब भाई साहब ने खर्चा भी तो बेहिसाब किया है। अब परेशान हो………”
इससे पहले वो कुछ और कहती अम्मा जी गुस्से में कहती हैं, "चलो अब बातें बंद करके भोजन की तैयारी करो। बच्चे थक गए होंगे।"
सभी अपने अपने कार्य में लग जाते हैं।
रामी इठलाते हुए अपनी सासु माँ से बात करती है, " जी मम्मी जी...हम पहुंच गए। जी आप उदास न होना…….जी मैं आपको फिर फोन करती हूँ। चरण स्पर्श।"
फ़ोन रखकर रामी अपनी माँ के पास फुदकते हुए रसोई में पहुंच जाती है। और उत्साह से कहती है, “ माँ पता है मेरी सासु माँ रो रही थी मेरे आने पर। मुझसे बहुत लाड़ करती हैं वो। सब बहुत अच्छे हैं। घर भी अच्छा है। मेरे दिए गए सारे उपहार उन्हें पसंद आए। कह रहे थे अगली बार भी कुछ अलग लाना…।" रामी को टोकते हुए माँ कहती हैं, “ अगली बार मतलब?”
“माँ अब पहली बार जाऊंगी तो उपहार तो देना होगा ना? और फिर उन्हें भी तो पता चले हमारा दिल कितना बड़ा है।" नाक बढ़ाते हुए रामी ने कहा।
माँ ने धीमी आवाज में कहा “ बेटा, क्या ज़रूरी है??”
“हां माँ...आप तो भोली हो। समझती नहीं हो। वहां मुझे अपनी बात भी तो बनानी है।"
माँ ने सिर हिला दिया, “ ठीक है।"
कुछ दिन बीत गए रामी ने अपनी पसंद से ढेर सारी खरीदारी कर ली। रोज़ाना अपने ससुराल वालों से घर में घूम घूम कर बातें करती और उनका बखान करती रहती। शीघ्र ही उसके जाने का दिन आ गया। सारी तैयारियां हो गयी।
माता पिता आपस में बात कर रहे थे। “कल रामी को लेने कौन आ रहा है?” माँ ने पूछा।
“ह्म्म्म…कुछ आठ दस लोग आएंगे। सबके टीके का इंतज़ाम कर दिया। मिठाइयाँ भी आ जाएंगी। तुम लोगों को भी परेशान होने की ज़रूरत नहीं है। खाने बनाने वाली को कह दिया है।"
“इतना खर्च करने की क्या ज़रूरत थी। अभी कितना उधार चुकाना है। फिर राज की फीस भी..” माँ ने कहा।
“देखेंगे..इतना मत सोचो। अभी नया नया रिश्ता है। औपचारिकता तो निभानी पड़ेगी। पर हां इससे उबरने में थोड़ा वक्त लग जायेगा।"
“ हां वो तो है। पर अभी रामी से भी जी भर के बात भी नहीं हुई। कभी बाज़ार, कभी दोस्त, कभी फ़ोन तो कभी रिश्तेदारों में व्यस्त रहती है हमारी बिटिया। फिर मैं भी रसोई और घर से वक़्त नहीं निकाल पाती। मन सूना रह गया। अब कल घर की रौनक फिर चली जायेगी।" माँ ने लंबी सांस लेते हुए कहा।
रामी दरवाज़े के कोने से सारी बातें सुन रही थी। उसकी बड़ी बड़ी आखों में आँसू भरे थे। और मन में खुद के लिए सवाल और उलाहना भरी थी। उसने ये क्या कर दिया। ना उसे माता पिता की परेशानी दिखाई दी ना उनका सूनापन। वो कैसे इतना आत्म मुग्ध हो गयी। के उसे अपनी प्रसन्नता के सामने उनकी पीड़ा नहीं दिखी। उससे अपने ससुराल में अपने संस्कारों से स्वभाव से स्थापित होना चाहिए। उसने अकारण ही अपने मायके पर एक और बोझ डाल दिया। पर आज वह आत्म मोह से मुक्त हो गयी। अब उसे सामंजस्य स्थापित करना है दोनों घरों के बीच।
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