"अरे, दीदी थोड़ा साइड में देखो...थोड़ा मुस्कुराइए....नीचे देखिए...."
"देखो भैया!! इतने नाटक नहीं होते हमसे। फोटो खींचना हो तो खींचो, नहीं तो रहने दो।"
उफ़्फ़....वो एक समय था जब साल भर में एक बार या दो बार स्टूडियो में जाकर फ़ोटो खिंचवाते थे। उसपर भी अकड़ राजकुमारी वाली।
फिर एक स्वयं का kodak का कैमरा भी लिया गया। गाहे बगाहे, बड़ी मशक्कत से रोल डलवाया जाता। और बड़ी सोच समझकर इस्तेमाल किया जाता।
पर यह समस्या का अंत तो था ही नहीं। भगवान की दया से सूरत तो थोड़ी ठीक थी, पर फ़ोटो में तो किसी दूसरे ग्रह के प्राणी लगते। धीरे धीरे वह शौक भी फ़ना हो गया।
अब निश्चय यह किया गया कि स्टूडियो में थोड़ा फ़िल्टर के साथ ही तस्वीर खिंचवाई जाए। कुछ साल ऐसे भी निकले।
आड़ी तिरछी ही सही पर तस्वीरों के रूप में यादें बहुत जमा की गयीं।
फिर दौर शुरू हुआ, कैमरा मोबाइल का। बड़ा अद्भुत आविष्कार रहा सदी का। मानों हाथों में अलादीन का चिराग़ लग गया हो। जहाँ चाहो वहाँ, जिसकी चाहो उसकी फोटो खींच लो। पर जनाब अपनी कौन ले। और जो फ़ोटो खिंची हैं उन्हें संभाल के कैसे रखें?? प्रिंट करवाने के रेट हो हाई फाई थे।
ख़ैर, वक़्त के साथ साथ यह तकनीक भी विकसित हुई। अब भाई, फ़ोन सिर्फ़ चिराग़ ही नहीं, पूरा का पूरा जादू का पिटारा बन गया।
ख़ूबसूरत फ़ोटो, बहुत सारे फ़िल्टर के साथ, बहुत सारी मेमोरी और भी तमाम अतरंगी तकनीकें।
अरे, पर यह क्या, सुरक्षित करने वाली मेमोरी तो बहुत थी, पर जिनके साथ मेमोरी सुरक्षित करनी थी वे नहीं थे।
सेल्फ़ी, ग्रुपफ़ी वग़ैरह वग़ैरह शब्द तो इज़ात कर लिए। पर खुद फ़ोन के कैमरे के साथ अकेले रह गए। कहीं जाते तो "फोटो खींच" की होड़ भी साथ चलती।
ना प्रकृति, ना मुस्कान, ना व्यक्ति, ना अभिव्यक्ति... अब तो बस चार इंच के पटल पर बस तस्वीरों को धड़ा धड़ सामाजिक करने का चलन चल गया।
अब भाई, शामिल तो हर कोई है दौड़ में। पर कृतिम मुस्कानों का अंबार हृदय भेदता है।
बस यही सोच सोच कर मेरा लेखक मन भी विचलित हो उठा सो लिख दिया। अब कारण भी बता दूं.....
कल ही विद्यालय में, एक नन्हा बालक दाखिला लेने अपने अभिभावकों के साथ आया। मस्त झूला झूल रहा था। पिता जी ने हर पेड़ और झूले का साथ फोटो खींच ली। फिर बोले,
"चलो हो गया, खिंच गयी फ़ोटो, अब चलें।"
उस बच्चे के जैसे मेरा मन भी विचलित हो झूले में अटक गया।
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धन्यवाद चारु
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