जीवन जीने का सबका अपना सलीका होता है। अब वह सलीका सामाजिक दृष्टि से अपेक्षित होना ना होना अलग बात है।
जो व्यक्ति भीड़ से अलग दिशा में जाता है, वह किसी को समझ नहीं आता।
ऐसे ही एक अलग से व्यक्तित्व के धनी थे... शर्मा जी। जिनका एक भरा पूरा परिवार था। पर मन से वे बैरागी ही थे। पारिवारिक क्रियायों में उनकी रुचि काफी कम थी। लोग अक्सर उन्हें उलाहना देते कि, "शर्मा साहब, पुजारी बन जाओ... और पूरी तरह भक्ति में लीन जाओ। पर वे कुछ ना कहते।
उनकी दिनचर्या में एक बात शामिल थी, वह थी सुबह की सैर। सैर पर जाते, जो दुखियारा मिलता उसकी यथासंभव सहायता करते और कुछ दान भी करते। दीन दुखी, यहां तक की पशुओं की सेवा करने से भी पीछे ना रहते। पर ऐसा बैरागी मन कहाँ सबको भाता है???
इसलिए उनकी धर्मपत्नी भी उनसे त्रस्त रहती। एक सुबह उन्होंने निश्चय किया और शर्मा जी से कहा,
" आज मैं भी चलती हूँ आपके साथ। देखूं तो क्या करते हो सुबह की सैर पर।"
सैर करते हुए वे दोनों मंदिर तक पहुंच गए। धर्मपत्नी जी तो मंदिर में प्रवेश करने लगीं पर शर्मा जी आदतन बाहर ही ठहर गए।
यह देखते हुए पंडित जी ने मुस्कुराते हुए कहा, "आज तो अंदर जाइये शर्मा जी। हो सकता है आपको ईश्वर मिल जाएं।"
यह सुनकर जो शर्मा जी ने जवाब दिया, वह कुछ इस प्रकार है-
नहीं झुकता शीश मेरा, मंदिर और मज़ारों में,
क्यों ढूँढू मैं अपने ईश्वर को, जा जाकर गलियारों में।।
इत्र, धूप, लोभान में या दीपक के उजियारों में,
मिलता है वो मुझे, हर एक दिशा में...
पुर्वा और बयारों में।।
बहता है जो जीवन बनकर, बूँद बूँद जलधारो में,
हाथ थाम कर चलता है वो, जीवन के अंधियारों में।।
क्यों उलझूं मैं आडंबर में, दुनिया के व्यापारों में...
मन में मेरे संचार है उसका, जो साथ है मेरे मझधारों में।।
किसने कहा बसता है वो, दीवारों में, चौबारों में,
मुझमें तुझमें सबमें है वो, अपने सद्गुण और संस्कारों में।।
शर्मा जी की ये बातें सुनकर उनकी धर्मपत्नी जी का मन उनके प्रति गर्व और सम्मान से भर गया। फ़िर दुनिया की तो दुनिया जाने पर उन्होंने उनके पति के बैरागी मन को स्वीकार कर लिया।
शुभांगनी शर्मा
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