अक्सर दिन को, थोड़ी रिश्वत दे दिया करती हूँ, कि वो थोड़ा और बढ़ जाए। रातों के आगे थोड़ा पसर जाए, हम तो आज काम, समेट कर ही दम लेंगे, चाहे फिर रात ही हमसे, क्यों ना झगड़ जाए, ऐ दिन तू थोड़ा तो बढ़ जाए।। कई लोंगों से... मुलाक़ात नहीं हुई अरसे से, दिन से बोल देती हूँ... कुछ लम्हें चुराने को ख़र्चे से। मेरे अपनों का दीदार बस हो जाए, ये दिन थोड़ा और बढ़ जाए।। शौक मेरे एक कोने में.. उदास बैठे हैं। इंतेज़ार में मेरे, कुछ खास बैठें हैं। इस दिन से गुज़ारिश है.. अपनी आज़माइश से मुकर जाए, मेरे कहने से थोड़ा और बढ़ जाए।। मेरे वादे भी कुछ अधूरे हैं, अपनी चाहत से बस पूरे हैं। ना उनपर इल्ज़ाम.. धोके का चढ़ जाए। ख़्वाईश है मेरी... दिन तू थोड़ा और बढ़ जाए।। बिखरे हुए कुछ एहसास, शब्दों से संवर जाए। मेरा रोम रोम.. खुशियों से भर जाए। ज़िन्दगी मेरी, थोड़ा और निखर जाए। तेरी खिदमत.. जो करती रहती हूँ सारा दिन, मेरा जज़्बा वो काम कर जाए। जो पंख लगा उड़ जाया करता है, तेरी आदत वो बदल जाए काश ऐ दिन तू थोड़ा तो बढ़ जाए।।
रिश्वत....
काश ये छोटा सा दिन थोड़ा बढ़ जाये।
Originally published in hi
Shubhangani Sharma
14 Dec, 2020 | 0 mins read
A day will come when everything will be done.
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