माँ... चलो ना...
इस बार फिर क्षमा करदो हमें...
तुम्हें फ़िर सतरंगी चुनरिया पहना दे।।
ले तो लिया तुमसे बहुत कुछ हमनें,
अब तुम्हारा हर गहना लौटा दें।।
लहराती तुम्हारी हरियाली के सदके,
लुटाया तुमनें सर्वस्व अपना,
अब हम अपना भी अहम लुटा दें।।
हाँ... माना हमनें...
हम भूल चुके थे हद हमारी,
हम आज फ़िर अपनी..
एक सरहद बना दें।।
कुपित तुम हो,
अधिकार है तुम्हारा...
पर ना अपनी संतानों को यूँ सज़ा दें।।
धरती माँ... अपने आँचल में...
फ़िर शरण दे देना हमें...
हमारी ग़लतियों को भुला दें।।
थोड़ा समय तो लगेगा माँ,
दो सद्बुद्धि हमें कि हम तुम्हें फ़िर...
हरी भरी वसुंधरा बना दें।।
शुभांगनी शर्मा
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