"अरे बेग़म... कहाँ हो इधर तो आओ...सुनों तो मैंने कुछ लिखा है।"
शौहर को लिखने का शौक था। फिर तलब रहती अपनी बेग़म को सुनाने की। यूँ तो ना कोई जागीर थी उनकी ना कोई नोकरी। पर दिल से रईस थे। फ़क़ीरी में जीने वाले अमीर।
पर घर तो फ़कीरी से नहीं चलता है। तो यह ज़िम्मेदारी उठाई पतिदेव की बेग़म ने।
बेग़म ने भी किचन से ही गुस्से में कहा, " कैसी और कहाँ की बेग़म...दिन भर घर में ग़ुलामी करते रहो फिर सिलाई मशीन के आगे अपनी आँखें फोड़ो। किसी नवाब की बीवी थोड़े ही हूँ जो बेग़म बुलाते हो।"
दूसरी और शौहर ने प्यार से कहा, " इसलिए तो बेग़म कहता हूं, इतने ग़म मुझसे पाकर भी मुझे खुशियां देने वाली। बिना किसी ग़म की बेग़म।"
बस इसी प्यार ने ज़िन्दगी "बे-ग़म" कर दी दोनों की।
मुफ़लिसी ना घर पर हावी हुई ना रिश्तों पर।
Comments
Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓
So sweet
Thank you sonu ji
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