क्यों हम दरिया के दो किनारे रहे।।

तलाक़ की बढ़ती हुई दर के कुछ कारणों को दर्शाती यह छोटी थी कविता।

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Shubhangani Sharma
Shubhangani Sharma 09 Jul, 2022 | 1 min read
Divorce
तलाक़
 
खामियां कुछ तो रहीं होंगी हम में,
जो हम दो किनारे रहे।।
सहारे एक दूजे के हो सकते थे,
पर अंत में बेसहारे ही रहे।।
 
सही मैं ना सही, तुम ही सही, 
विचारों की दरिया में हम...
मझधारे ही रहे।
होना था एक ही ओर...
पर हम दरिया के बहते हुए 
दो किनारे रहे।।
 
तिल तिल तिलमिलाती उम्मीदों को,
थामना था हमारी उंगलियों को।।
समझना, समझाना, 
एक दूजे को रिझाना,
काम थोड़े आसान ही थे…
पर हम भी हमारे 
अहम के मारे रहे।।
 
झुक जाते जो थोड़ा प्यार के लिए..
बात कर लेते जो एक दूसरे के
बदलते व्यवहार के लिए…
जुड़े रहते हम ज़िन्दगी के 
सफ़र के लिए…
पर हम अजनबी बंजारे रहे।।
 
खो दिया आसरा ना जाने 
किस अनजानी चाह में,
विछोह शायद ना होता 
जीवन की राह में।
खींच लिया ख़ुद को 
एक दूजे के आग़ोश से,
और हम नादान थे 
जो अब अकेले बेचारे रहे।।
 
समझना थोड़ा मुश्किल है,
क्यों हम दरिया के दो किनारे रहे।।

शुभांगनी शर्मा
 
 
 
 
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